निराला के काव्य का वैचारिक आधार [niraala ke kaavy ka vaichaarik aadhaar] (आधुनिक हिंदी काव्य) IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment

IGNOU MHD - 02: आधुनिक हिंदी काव्य,
निराला के काव्य का वैचारिक आधार 
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(4) निराला के काव्य का वैचारिक आधार स्पष्ट कीजिए।    (16)

उत्तर:--निराला के काव्य का वैचारिक आधार:--

 21वीं सदी में हम बेहतर आलोचना ज्ञान से अपने  

साहित्य को समृद्ध करें। इसलिए इस पाठ का शीर्षक भी यह ध्वनित करता है कि हम निराला के काव्य का वैचारिक आधार विश्लेषित करें। किसी भी रचना के वैचारिक आधार को जानने के लिए उस रचना के भीतर यह देखने की  जरूरत है कि अपने युग के किस विचार दर्शन, प्रणाली पद्धति को आधार बनाकर उस रचना ने आकार ग्रहण किया हैं। जैसे हर रचना का एक वैचारिक परिपेक्ष्य और अपना एक वैचारिक आधार होता है, जो रचनाकार के निजी व्यक्तित्व और जीवन से मुक्त होता हैं। जहाँ तक निराला का संबंध है, और तो छायावाद युग से साहित्य में जाना जाने वाला युग स्वतंत्रता आंदोलन के विकास का भी युग था और निराला इसी युग में रचनारत थें। स्वतंत्रता आंदोलन के युग की मूल चेतना मुक्ति का एक वृहत्तर स्वप्न रही है, जो साहित्य में, राजनीति में, समाज में हर जगह व्याप्त था। मुक्ति का यही वृहत्तर स्वप्न में हर जगह उस युग का  वैचारिक आधार था, जिसकी नींव पर साहित्य कला की मीनारें खड़ी हुई। रुढ़ियों से मुक्ति, पुराने सड़ चुके बंधनों से मुक्ति, साहित्य में पारंपरिक भाषा, रूपं बंध, अलंकार, छंद  से मुक्ति। निराला के काव्य का वैचारिक आधार भी यहीं मुक्ति का चिंतन था।

निराला के अनुसार रचना में निहित विचारधारा रचना की भाषा में हासिल की जाती है, कवि या लेखक अपनी विचारधारा का जो उद्घोष करता है, जरूरी नहीं कि वही विचारधारा उसके द्वारा निर्मित काव्यनायकों की भी हो, क्योंकि किसी रचना का वाचक या नायक "मैं" शैली के बावजूद कवि खुद नहीं रह जाता। इसी वजह से कवि की एक रचना का वैचारिक आधार हो सकता हैं।

निराला जिस समय में रचनाकर्म कर रहे थे, उस समय तक हिंदी भाषा का जो विकास हो पाया था, उसे और आगे तक ले जाने के उद्देश्य से भाषा के बारें में भी उन्होंने काफी चिंतन किया था

निराला की कुछ मान्याताऍं आश्चर्यजनक रुप से रोला बार्थ की मान्यताओं से मिलती हैं। निराला ने यह संकेत भी दे दिया कि जरूरी नही सारे अर्थ ठीक ही लगें, पाठक खुद उसका निर्णय करे यानी पाठक के लिए एक अन्य अर्थ की संभावना को उन्होने खुला रखा। इस खुलेपन में पाठक की अपनी रचनात्मकता की गुंजाइश बनी रहती हैं। भाषा की बहुलार्थक प्रकृति की ही तरह निराला का एक और विचार रोला बार्थ से मिलता जुलता हैं। रोला बार्थ  रचनात्मक भाषा को सरल, तर्कसंगत और समझ में सीधे-सीधे जाने वाली भाषा के रूप में देखने के पक्ष में नहीं थें। प्रतिरोध की भावना से युक्त भाषा सरल नही होनी चाहिए। निराला भी "साहित्य और भाषा" शीर्षक निबंध में 'सरल' 'सरल' की गुहार का विरोध करते है, वे लिखते है--- हिंदी की सरलता के संबंध में बकवास करने वाले लोगों में अधिकांश को मैंने देखा-- लिखते बहुत है, जानते बहुत थोड़ा हैं।

निराला ने लिखा है कि जिन बड़े-बड़े साहित्यिकों में समाज का वास्तव में कल्याण हुआ उन प्राचीन बड़े-बड़े साहित्यिकों की भाषा कभी जनता की भाषा नहीं रही। "सोलह आने में चार आने जनता के लायक रहना साहित्य का ही स्वभाव" हैं।

निराला के काव्य का वैचारिक आधार जानने के लिए  जरूरी है, उनके समय के समाज के यथार्थ को वैज्ञानिक चिंतन के आधार पर समझना। समाज के विकास के वैज्ञानिक नियमों के अनुसार किसी भी समाज के यथार्थ को समझने के लिए जरूरी है, उस समय के समाज में विभिन्न वर्गों की स्थिति और भूमिका को समझना। निराला का काव्य उनके विकासकाल में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान लिखा गया और परवर्ती साहित्य स्वाधीनता के बाद। भारतीय समाज की एक बनावट स्वाधीनता आंदोलन के दौरान थी, उससे भिन्न एक नयी बनावट आजादी हासिल  कर लेने के बाद सामने आयीं। इन दोनों चरणों के वर्गीय ढांचे को समझे बगैर उस दौर के रचनात्मक साहित्य के वैचारिक आधार को समझ पाना मुश्किल होगा।

(i) मुक्ति का दर्शन:-

निराला के काव्य का भी वैचारिक आधार मुक्ति का ही दर्शन था। "मुक्ति" एक नये मानव मूल्य की तरह चेतना का हिस्सा बनने लगी, हर स्तर पर पराधीनता के खिलाफ चेतना प्रस्फुटित होने लगी। इसी भावना को "राष्ट्रवाद" "राष्ट्रप्रेम" के नाम से प्रचलित किया गया चूंकि इन नये मानव मूल्यों से हमारा समाज विकास की नयी मंजिल में प्रवेश कर सकता था, इसीलिए ये सारे मूल्य प्रगतिशील मूल्य थें। सामाजिक विकास की नयी मंजिल हासिल करने के लिए देश के लाखों लोगों ने जाने कुर्बान कर दी। मुक्ति का यह अहसास बहुत बड़ी शक्ति छिपाये हुए था, इसमें बड़ी उर्जा थीं। इसी ऊर्जा से निराला का साहित्य भी दीप्त हो रहा था। निराला के रचनात्मक साहित्य का वैचारिक आधार ही मुक्ति का दर्शन  था। मुक्ति के विचार से संगति बिठाने वाले हर दार्शनिक चिंतन को वे आत्मसात करने और उसे नया अर्थ देने की कोशिश में लग जाते थें। निराला ने भी अतीत को गौरवान्वित करके भारतीय चेतना में रचे-बसे मिथकों को इस्तेमाल करके पराधीनता की नीद से सोये हुए देश के जन-गण को जगाने की रचनात्मक कोशिश की। "जागों फिर एक बार" कविता का वैचारिक आधार भारतीय नवजागरण की वे तमाम दार्शनिक प्रणालियाॅं है, जो अपने आंतरिक अंतविरोधों के साथ भी हर भारतीय को अतीत की महानता का बोध कराती थीं। पराधीनता से मुक्त होने के लिए  उत्प्रेरित करती थीं।

(ii) मुक्ति का चिंतन:- 

निराला की कविताओं का वैचारिक आधार अन्य छायावादी कवियों के वैचारिक आधार की ही तरह मुक्ति का चिंतन था। मुक्ति संग्राम में भी कोशिश यह हो रही थी कि अतीत की ही कोई दार्शनिक प्रणाली हाथ लग जाये तो उसी के सहारे आजादी की लड़ाई लड़ी जाये। इस लड़ाई में से एक वर्ग नवोदित पूंजीपतिवर्ग और दूसरा वर्ग उनके आधीन काम करने वाले मजदूरों का वर्ग था। जब तक मजदूर वर्ग ने अपनी राजनीतिक पहलकदमी और अपनी पार्टी का

गठन आदि का काम देर से शुरू किया, तब तक पूंजीपतियों की पार्टी और राजनीति ने भारत के आवाम की चेतना में पैठ कर ली थी। इसी वजह से हमारे यहाँ अतीत की विचारधाराओं का सहारा लेकर मुक्ति संग्राम लड़ने की कोशिशे हुई। निराला की कविताओं में भी भारतीय नवजागरण की विचार प्रणालियों के अंतविरोध हैं। इसलिए उनकी सारी कविताओं का एक ही वैचारिक आधार नहीं हैं। "बादल राग" कृषक मुक्ति की विचारधारा की कविता हैं। "राजे ने अपनी रखवाली की" का वैचारिक आधार मज़दूर वर्ग की विचारधारा हैं। भारतीय पूंजीपति वर्ग इस आंदोलन की नेतृत्वकारी शक्ति बन चुका था, इसलिए वह ऐसे तमाम विचारों की "एकता" सांमजस्य का पक्षधर हो गया था, जिससे स्वाधीनता हासिल करने में मदद मिलती हो।

        निराला का काव्य इन सभी तरह के विचारों को प्रतिबिंबित करता है। इस "विविधता में एकता" का आधार भारत की मुक्ति ही था। मुक्ति की प्रेरेणा ने ही उनकी कल्पना को उन्मुक्त किया, प्रेम की उन्मुक्तता को जन्म दिया, प्रकृति प्रेम का कालबोध या मृत्युबोध की रचनाएँ भी मुक्ति के विचारों से ही प्रेरित हैं।

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