नागार्जुन के काव्य का रचना विधान की विशिष्टता [naagaarjun ke kaavy ka rachana vidhaan kee vishishtata] (आधुनिक हिंदी काव्य) IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment

IGNOU MHD - 02: आधुनिक हिंदी काव्य,
नागार्जुन के काव्य का रचना विधान की विशिष्टता
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(4) नागार्जुन के काव्य का रचना विधान की विशिष्टता बताइए।

उत्तर:-- नागार्जुन के काव्य का रचना विधान:--

काव्य में रचना विधान का अर्थ ही रचना का बनना हैं, जिस तरह कुम्हार मिट्टी के एक लोंदे को चाक पर रखकर घुमाते संवारते उसे एक बर्तन या आकृति में बदल देता है, उसी तरह एक कवि भी जीवन के टुकड़े को कविता में बदलता हैं। एक कवि मिट्टी की जगह शब्दों का इस्तेमाल करता हैं। उसका माध्यम, उसकी सामग्री शब्द ही है यानी भाषा। भाषा में ही कविता संभव होती हैंं। भाषा तो सर्वोपरि है ही। नागार्जुन के रचना विधान का एक अनिवार्य तत्व है-- व्यंग्य और नाटक। नागार्जुन ने भूले बिसरे काव्य रूपों को तो अपनाया ही, उन्होंने नये-नये छंदो की भी रचना की। नागार्जुन के यहाँ रूपो की अद्भुत विविधता मिलती है, जितने कथ्य उतने रूप। इसलिए नागार्जुन की प्रत्येक कविता का रचना-विधान अलग होता हैं।

(1) रचना विधान के तत्व:-

(ⅰ) भाषा:- रचना-विधान को समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि कविता जो भी है, वह अपने शब्दों में ही हैं। इसलिए शब्दों के आचरण को समझना ही सबसे महत्वपूर्ण हैं। जैसे नागार्जुन की एक कविता "अकाल और उसके बाद"-----

"कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास 

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास

चमक उठी घर भर की आँखे कई दिनों के बाद 

कौए ने खुजलाई पाॅंखे कई दिनों के बाद।"

नागार्जुन रोजमर्रा के बिम्बों और शब्दों से अपनी कविता बनाते हैं। कविता की लय भी सुगम, जानी पहचानी सी, साधारण लोगों के जीवन के बारें में उन्ही की भाषा में उन्ही के जीवन प्रसंगों का उपयोग किये हैं। कई दिनों तक चूल्हा रोया - यानी कई दिनों तक चूल्हा जला हीं नहीं, क्योंकि अन्न था ही नहीं। चक्की रही उदास - चक्की में कुछ पिसा ही नहीं, क्योंकि दाने थे ही नहीं। कई दिनों तक कानी कुत्तिया सोयी उनके पास, इसका मतलब ? चुल्हा - चक्की खाली पड़ी थी तो कुतियाॅं वहाँ आकर सो गयी, लेकिन कानी कुतिया क्यों ? सिर्फ कुतिया क्यों नहीं ? क्या इसलिए कि सिर्फ कुतिया रखने से छंद टूटता ? नहीं, इसलिए कि यह एक गरीब परिवार हैं, जहाॅं की कुतिया भी कानी हैं। कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त - यानी छिपकलियों को खाने को कीड़े नहीं मिले क्योंकि बत्ती नही जली। यह संग्राम है-- अन्न के लिए, भूख की लड़ाई। भूख ही सबसे बड़ा युद्ध हैं।

अब दूसरा बंद जो पहले बंद की लय से भिन्न हैं। पहले बंद की लय धीमी है, सुस्त है, क्योंकि अन्न नहीं। दूसरे में तेज, निकलती हुई, क्योंकि दाने आ गये हैं। आँगन में धुआँ उठने से - अकाल ने मानों आदमी के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया हैं। अतः आदमी का होना अन्न के होने पर निर्भर हैं।

कवि ने गृहस्थ जीवन के संपूर्ण अभाव की कहानी कह दी हैं। आंगन में धुऑं उठने का मतलब है कि खाना पकाया जा रहा हैं। अकाल पीड़ितों के लिए चूल्हा जलाना एक चमत्कारिक घटना हो जाती हैं।

अन्न के दाने का महत्व कितना बड़ा होता है, यह अकाल में तबाह लोग ही जान सकते हैं। किसान केवल मनुष्य के लिए ही नहीं संपूर्ण सृष्टि के लिए महत्वपूर्ण हैं। उसके श्रम के बिना कुत्ते और चूहे भी अपना पेट नहीं भर सकते हैं। कवि 

नागार्जुन अपने कौशल से शब्दों और भाषा के उपयोग से दोनों स्थितियों का बोध कराते हैं। इस तरह कविता भी स्थिति या दिशा विशेष का अनुभव कराती हैं। वहीं रचना विधान सफल हैं।

नागार्जुन एक कविता में कहते है-- "आंचलिक बोलियों का मिक्सचर / कानों की इन कटोरियों में भरकर लौटा", तो नागार्जुन की भाषा भी तरह-तरह की बोलियों का 'मिक्सचर' या मिश्रण हैं। इन पंक्तियों में----

"तैरती रही अरण्यक छवियाॅं सूनी निगाहों में

लेकिन वह तो अब तक अलक्षित हो चुका था, 

स्टार्ट हुई हमारी जीप 

बैलाडीला वाली सड़क पर"

यहाँ अरण्यक, अलक्षित जैसे तत्सम शब्दों के साथ उर्दू का प्रचलित 'निगाह'' भी है और अंग्रेजी का 'स्टार्ट' भी। नागार्जुन कहते है----- यही बाते अपनी पूंजी, यहीं अपनी औजार, यही अपनी साधन और हथियार बाते साथ नहीं छोड़ेगी मेरा--!

(ii) नाटकीयता:- नागार्जुन की कविताओं में नाटकीयता का तत्व प्रमुख हैं। नागार्जुन की नाटकीय स्थितियों में द्वंद है, अंतविरोध है, यानि दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों या तत्वों की उपस्थिति है, नागार्जुन उसे पकड़ने और अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं। इसी कारण नाटक जैसा वातावरण बनता है, क्योंकि यहाँ घात-प्रतिघात है, परस्पर द्वंद है, इसलिए उनका रचना विधान भी भिन्न है, नाटकीयता से सम्पन्न जैसे, इन पंक्तियों में----- 

"नथुने फुला-फुला के,

राह चलते-चलते, यक ब यक बाँह पकड़ ली 

खुद भी खड़े रहे, मुझे भी रोक लिया 

और बोले, क्या कुछ खास ही महसूस होती है

नथुने फुला-फुला के",

इस तरह नागार्जुन को जो भी कहना होता है वह अपनी कविताओं नाटकों में स्पष्टता के साथ खोल कर कह देते हैं। नाटक का तत्व हमेशा ही कविता को सघन और संषि्लष्ट बनाता है, तभी स्थिति का पूरा नाटक उजागर होता हैं।

(iii) व्यंग्य:-  नागार्जुन का व्यंग्य भारतेंदुकालीन व्यंग्यकारों से भी जुड़ता है, उन्होंने आज की व्यवस्था पर गहरा प्रहार किया हैं। नागार्जुन ने सबसे ज्यादा चोट राजनेताओं पर की और कई बार खुद अपने पर भी। व्यंग्य के लिए द्वंद या अंतविरोध का होना जरूरी हैं। दो मुल्यों की टकराहट, दो परस्पर विपरीत स्थितियों की प्रस्तुति से व्यंग्य उत्पन्न होता हैं। कविता का रूप यानी शिल्प ऐसा होना चाहिए कि यह द्वंद या अंतविरोध सर्वाधिक तीव्रता से व्यक्त हो सके। नागार्जुन की पारस्परिक द्वंद जब अंतविरोधी चरित्र वाली स्थिति को व्यक्त करते है तो एक तनाव उत्पन्न होता है, जो व्यंग्य को धारदार बनाता हैं। नागार्जुन रूप-विधान का उपयोग जीवन की अराजक पक्ष को व्यक्त करने के लिए करते हैं। इससे बहुत गहरा व्यंग्य पैदा होता हैं।

नागार्जुन व्यंग्य को पैना करने के लिए अपनी समस्त शब्द- विद्या का प्रयोग करते हैं। "आए दिन बहार के" यह स्पष्टत राजनीतिक व्यंग्य है-----

स्वेत स्याम रतनार अखियाॅं निहार के

सिंडकेटी प्रभुओं की पग-धूर झार के 

लौटे है दिल्ली से कल टिकट मार के 

खिले हैं दाँत ज्यों दाने प्रकार के 

आए दिन बहार के ।

इस बंद में उन नेताओं पर व्यंग्य है, जो दिल्ली से टिकट मार के लौटे हैं। यह उनके लिए खुशी का क्षण है। इस पर नागार्जुन व्यंग्य करते है। "आए दिन बहार के" जो प्रेमियों के लिए प्रिय दर्शन का वसंत में सुख का था। वहीं इन नेताओं के लिए सुख है- टिकट मारने में। नागार्जुन स्वंय कहते है--- प्रतिहिंसा ही स्थायीपूर्ण भाव हैं। मेरे कवि का, उसके प्रति घृणा ही इन कविताओं के मूल में है। इसलिए नागार्जुन स्थितियों के द्वंद और अंतविरोधों को उभार कर व्यंग्य की रचना करते हैं।

(2) नागार्जुन के काव्य का रूप प्रयोग:-

छायावाद की हिंदी कविता में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद दो प्रवृतियाँ आयी। नागार्जुन घोषित रूप से प्रगतिवादी हैं। नागार्जुन की कविताओं में नये-नये रस प्रयोगों यानी नयी बात तो हो ही नया रूप भी हो और इसके लिए नये प्रयोग किये जाए।

नागार्जुन ने अपने काव्य में छंद, गद्य तथा पुराने से पुराने दोहों का इस्तेमाल किया और नवीनतम गद्य शैली भी अपनायी । नये-नये वस्तु संयोजन द्वारा यथार्थ संबंधी परिवर्तन भी किये। अपनी बात को अधिकाधिक बल के साथ कहने के लिये या कविता के जरिए वह जो करना चाहते है, उसकी पूर्ति के लिए ही नागार्जुन नये रूपाकारों की रचना करते हैं। डॉ० रामविलास शर्मा कहते है-- नागार्जुन ने लोकप्रियता और कलात्मक सौन्दर्य के संतुलन और सामंजस्य की समस्त को बहुत ही सफलता से हल किया हैं।

नागार्जुन अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक अधिक से अधिक सुगम तरीके से पहुँचाना चाहते हैं। इसलिए उसका शिल्प ज्यादा खुला हुआ, विविध और अपेक्षाकृत सरल हैं। इसलिए उनकी रचना विधान सफल हैं। सबसे सफल रचना -विधान अथवा शिल्प वही है, जो सबसे अच्छे ढंग से विषय वस्तु को अभिव्यक्त कर दें।

सारांश:-

नागार्जुन के रचना विधान की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह 'सरल' पर संश्लिष्ट हैं। उनकी कविता अधिक से अधिक लोगों को समझ में आने लायक हैं। जिनका काव्य 'सरल' विधान है। उनके बिंब भी सुगठित मुर्त और स्पष्ट होते हैं।

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