अज्ञेय की काव्यभाषा और काव्यशिल्प की विशेषता [agyey kee kaavyabhaasha aur kaavyashilp kee visheshata] (आधुनिक हिंदी काव्य) IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment

IGNOU MHD - 02: आधुनिक हिंदी काव्य,
अज्ञेय की काव्यभाषा और काव्यशिल्प की विशेषता
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(3) अज्ञेय की काव्यभाषा और काव्यशिल्प की विशेषताऍं बताइए । (16)

उत्तर:- अज्ञेय की काव्यभाषा:-

अज्ञेय के लिए काव्यभाषा कविकर्म का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष हैं। अज्ञेय ने अपनी काव्यभाषा विकसित करने के लिए बहुत लंबा संघर्ष किया हैं। अज्ञेय के काव्य में काव्यभाषा के प्रति गहरी चिंता हैं। सही और सार्थक भाषा की पहचान की ओर सदा वे सचेष्ट रहे हैं। उनकी काव्यभाषा की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका बल तद्भव शब्द के चुनाव पर हैं। तद्भव शब्द ग्रामीण जीवन की प्रामाणिक बिंब माला को उपस्थित करते हैं।

अज्ञेय की सृजनात्मक क्षमता को भाषा और संवेदना दोनों दृष्टियों से समृद्ध करता हैं। अज्ञेय के अनुसार काव्य सबसे पहले शब्द है और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द हैं-- ध्वनि, लय, छंद आदि के सभी प्रश्न इसी में से निकलते हैं, और इसी में विलय हो जाते हैं। अज्ञेय के काव्यभाषा की सृजनात्मक विशिष्टता "असाध्य  वीणा" में सबसे अधिक प्रकट हैं। उन्होंने छायावादी संस्कारों के प्रभाव से मुक्त होने में वह नयी काव्यभाषा अर्जित की, जिससे प्रयोगवाद और आगे नयी कविता की पहचान बनी। अज्ञेय की नयी काव्यभाषा आकस्मिक घटना नहीं हैं, बल्कि उसके पीछे लंबा संघर्ष हैं।

(i) काव्य बिंब:-

काव्यभाषा को संगठित करने वाले उपादान के रूप में बिंब महत्वपूर्ण हैं। बिंब का विकास इमेज शब्द के अर्थ में हुआ हैं। केदारनाथ सिंह कहते हैं --- " बिंब शब्द का प्रयोग मूर्तिमत्ता अथवा चित्रात्मकता के अर्थ में किया जाता हैं, परंतु आज की समीक्षा में उसका चित्रात्मकता वाला अर्थ गौण हो गया है और वह उन समस्त काव्यगत विशेषताओं का बोधन बन गया है, जो पाठक को एंट्रीय चेतना के किसी भी स्तर पर प्रभावित करती है"।

अज्ञेय के बिंबविधान में वर्णय स्थिति और उसके बिंब को घुले-मिले रूप में देखते हैं।-- पहाड़ी यात्रा का बिंब--

"मेरे घोड़े की टॉंप 

चौखटा जड़ती जाती है

आगे के नदी-व्योम,

घाटी पर्वत के आसपास

मैं एक चित्र में

लिखा गया सा आगे बढ़ता जाता हू" ।।

अज्ञेय की कविता "हरी घास पर क्षण भर" में मुक्त साहचर्य पद्धति के खंडित स्मृति बिंब की दृष्टि से उल्लेखनीय उदाहरण है -----

"क्षण भर अनायास, हम याद करें

चीड़ो का वन, साथ-साथ दुलकी चलते दो घोड़ें

गीली हवा नदी की, फूले नथुने,

भर्रायी सीटी स्टीमर की, खण्डहर

ग्रथित अंगुलिया, डाकिए के पैरों की चाप '----

इन पंक्तियों में अज्ञेय के स्मृतिबिंब के बिखरे मुक्त  संयोजन हैं। जैसे स्मृति के अवचेतन में कोई एक रील चल रही हो।

(ii) काव्य प्रतीक:-

काव्य प्रतीक मूल रूप में बिंब ही होता हैं। तब उसमें अनेकार्थता संभव होती हैं, और क्रमशः विकसित होते-होते वही प्रतिक के रूप में जाना जाता है, और प्राय:  एकार्थक लगने लगता है। बिंब अधिकतर उपचेतन मन की सृष्टि होती है, प्रतीक चेतन मन की। प्रतीक परम्परा के निकट जाकर समाज का जाना-पहचाना विचार बन जाता हैं। काव्यगत प्रतीक मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार का हो सकता हैं।

अज्ञेय की कविता "नदी के द्वीप में" द्वीप वैयक्तिकता का प्रतीक है, "धारा" सामाजिकता का, सामाजिक प्रवाह का। "बावरा अहेरी" कविता में 'अहेरी' सूर्य का प्रतीक हैं :----

"भोर का बावरा अहेरी 

पहले बिछाता है आलोक की

लाल लाल कनियाॅं

पर जब खींचता हैं जाल को

बाॅंध लेता है सभी को साथ

छोटी छोटी चिड़ियाॅं

मंझोले पंखे,

बड़े-बड़े पंखी"----

कवि प्रतीकार्थ तक ले जाता है कि वही 'मन विवर' में दुबकी कलौंस को दूर करने वाला है, भेदने वाला है वह शिकारी !!

(iii) मिथकीयता और काव्यभाषा:-

मिथक को हम पुराणकथा या पौराणिक कल्पना से सम्बद्ध करते हैं। मिथक को भाषा का पूरक कहा गया हैं। मिथकीयता वह भाषा-प्रक्रिया है, जिसमें "काल" का अनुभव "दिक" और "दिक" का अनुभव 'काल' में बदलता है। "चक्रव्यूह" एक मिथकीय प्रतिक कहा जा सकता हैं। "असाध्य वीणा" कविता में "केशकम्बली",  "वज्रकीर्ति", "किरिटी तरु", "वासुकी नाग" आदि के संदर्भ मिथकीय काव्यभाषा के लिए उपयुक्त संरचना निर्मित करते हैं---

"केशकम्बली गुफागेह ने खोला कम्बल

धरती पर चुपचाप बिछाया

वीणा उस पर रख, पलक मूदकर, प्राण खींच 

करके प्रणाम

अस्पर्श छुअन से छूए तार"!

(iv) नया सादृश्यविधान और अन्य विशेषताऍं:-

अज्ञेय की कविता में नया सादृश्यविधान काव्यभाषा को सर्जनात्मक वैशिष्ट्य देता हैं। अज्ञेय "कलगी बाजरे की"  कविता में घिसे-पिटे परंपरागत उपमानो की हॅंसी उड़ाते हैं, साथ ही नये अनगढ़ अकाव्यात्मक उपमानों की काव्यगत सार्थकता भी स्पष्ट की हैं। अज्ञेय की "नख-शिख" कविता में पैटर्न रीतिकालीन नख-शिख जैसा ही हैं, पर प्रयुक्त उपमा नयी है और प्रभाव भी नया हैं। जैसे  दुर्वांचल की पंक्तियाॅं----

"पाशर्व गिरी का नम्र चीड़ों  में

डगर चढ़ती उमंगों सी

बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा"।

अज्ञेय के काव्यभाषा की सृजनात्मकता का रहस्य किसी एक युक्ति में नहीं, बल्कि भाषा की समूची विधि में निहित हैं, जिसमें सादृश्यविधान या अलंकारविधान, बिंब प्रतीक मिथक के संयोजन की संश्लिष्टता होता हैं।

अज्ञेय की काव्यशिल्प:-

अज्ञेय काव्यशिल्प की सिद्धि के कवि हैं। अज्ञेय सतर्क, सजग, दक्ष कवि थे। इससे कवि की शक्ति और सीमा का एक साथ पता चलता हैं। उनके वाक्य विन्यास पर अंग्रेजी का प्रभाव भी हैं। कहा गया है कि अज्ञेय में ध्वनि, शब्द, अर्थछाया, वाक्यखण्ड सबमें अंग्रेजी का संवेदनात्मक  सूक्ष्म दिखाई देता हैं। अज्ञेय छोटी कविता लम्बी कविता में भेद नहीं करते। नहीं मानते कि इस भेद से शिल्प की समस्या प्रभावित होती हैं। अज्ञेय शिल्प में कौतुकविनोद  की छूट लेते हैं। वक्तव्य की शैली को लेकर अज्ञेय ने "चौथा" सप्तक की भूमिका में आपत्ति व्यक्त की हैं। उनका कहना है कि - "आज की कविता बहुत बोलती है, जबकि कविता का काम बोलना है ही नहीं।" अज्ञेय की कविता में शैली का एक भी प्रयोग नहीं हैं, पर यह भी नहीं कि हर शैलीगत प्रयोग ठीक लगें।

(i) रुप और शिल्प के प्रति दृष्टिकोण:-

अज्ञेय का मानना है कि आधुनिक कविता सीधी चेतना को छूना चाहती हैं, इसलिए निरे शब्दों के निरे अर्थों से आगे जाकर वह ध्वनियाॅं, अंतध्वनियों, स्वरों और अन्तस्वरों से उलझती हैं। उनके अनुसार वह एक साथ दो विरोधी  दिशाओं में चलती है- एक तरफ छंद के बन्दन को तोड़ती है, तो दूसरी तरफ वह संगीत यानी गेयतत्व को अधिक अपनाना चाहती हैं।

(ii) प्रगीतात्मकता:-

अज्ञेय के गीतों में ढाँचे के बिना भी लय या संगीत का रचाव है और "असाध्य वीणा" जैसी लम्बी कविताओं में भी प्रगीतत्व का उप‌योग हैं। अज्ञेय जी के गीत सीधा सरल होते हुये भी विशिष्टता लिये हुए हैं। जैसे:-

"पूर्णिमा का चाँदनी / सोने नहीं देती। 

निशा के उर में बसे आलोक सी व्यथा व्यापी 

प्यार में अभिमान की पर कसक ही / रोने नहीं देती।"

अज्ञेय के गीतों की पंक्तियों में लघुता और फिर लम्बा वाक्य-विधान होता हैंं। दूसरी ओर "असाध्य वीणा" में निहित प्रगीतात्मकता अलग-अलग स्थलों में सम्पूर्ण रचाव में दिखती हैं जैसे:-

"तू उत्तर बीन के तारों में 

अपने से गा 

अपने को गा 

तू गा, तू गा

तू सन्निधि पा तू खो।"

(iii) लंबी कविताऍं:-

अज्ञेय जी की "असाध्य वीणा" की तरह एक अन्य लम्बी कविता है "औ निसंग मिमेतर"। ग्यारह खण्डों की यह लम्बी कविता आंतरिक लय, वही अन्त संबंध संभाले हुए हैं, जो "असाध्य वीणा" की विशेषता हैं। तनाव नहीं संतुलन वही प्रगीतात्मकता का सा रचाव :-

"वर्षा जिसे धोती हैं, शरद संजोता हैं।

अगहन पकाता और फागुन लहराता 

और चैत काट, बाँध, रौंद, भरकर ले जाता है 

नैतिक चंक्रमण सारा, पर दूर क्यों, 

मैं जो साॅंस लेता हूँ, जो हवा पीता हूँ, हरबार 

अविराम-अक्लान्त, अनाप्यायित, तुम्हें जीता हूँ"।

इस तरह अज्ञेय की लम्बी कवितायें भी प्रगीतात्मक हैं। नामवर सिंह की दृष्टि से जहाँ नाटकीयता और तनाव  संरचना में हैं, वहीं लम्बी कविताएँ अधिक सफल कही जा सकती हैं। अज्ञेय अपनी कवि प्रकृति की सीमा का  सपष्टीकरण देते हैं- "लम्बी कविताएँ भी होती है, हो सकती हैं, पर उनको कलात्मक एकता और गठन देने वाली चीज फिर दूसरी हो जाती हैं- भाव की संहति और तीव्रता नहीं। वह ढंग दूसरा हैं, और कहूँ कि मेरा वह नहीं हैं।"

(iv) नाटकीयता तथा अन्य रूपगत विशेषताऍं:-

अजेय की कविता में नाटकीयता है तो बहुत सीमित रूप में है। नाटकीयता अधिक से अधिक कथन की भंगिमा हैं।  "असाध्य वीणा" में नाटकीय तनाव की तीव्रता न हो, नाटकीयता तो है ही। "असाध्य वीणा" के इन दृश्यों पर  प्रियवंद का आना, उनका संकोच, वीणा को साधना- संभालना देखते हैं। फिर वीणा की झंकृति। सभा का मौन। वह विलक्षण सन्नाटा। सबका तिरना एक साथ। पार जाना  अलग-अलग। कथा की मंद मंथरगति के बावजूद  नाटकीयता पूरे संयोजन में हैं। इसके आलावा अज्ञेय की अपेक्षाकृत छोटे आकार की कविताओं में आत्मकथन या सम्बोधन की भंगिमाएँ नाटकीयता लिये हुए हैं। "बना दे चितेरे", "उधार", "चिड़ियां ने ही कहा" में ये भंगिमाएँ एक साथ भाषा की रूप की विशिष्टता सूचित करती हैं। इनके कुछ उदाहरण देखे---

(क) बना दे चितेरे, मेरे लिए एक चित्र बना दे।

---सागर ऑंक कर फिर ऑंक उछली हुई मछली। 

-----आतुरता मुखर है। ("बना दे चितेरे" से) 

(ख) सबेरे उठा तो धूप खिलकर छा गयी थी। 

और एक चिड़ियां अभी-अभी आ गयी थी। 

मैंने घास की पत्तों से पूछा तनिक हरियाली दोगी,

तिनके की नोक पर।  ("उधार" से)

(ग) मैंने कहा कि चिडियाॅं, मैं देखता रहा--

चिडियाॅं चिडियाॅं ही रही, फिर जाने कब- 

मैंने देखा नहीं, भूल गया था मैं क्षण भर को तकना। ("चिड़ियाॅं ने कहा" से)

इससे पता चलता है कि-----

(क) में गति और स्थिरता के द्वंद में चित्रात्मकता, 

(ख) में कोमल आत्मीय संवाद, 

(ग) में 'विस्मय' ये सब प्रयोग अज्ञेय के शिल्पकौशल का आभास देते हैं।

अज्ञेय की काव्यभाषा और काव्यशिल्प की दृष्टि से मूल्यांकन :-

अज्ञेय की लंबी यात्रा से कुछ कविताओं को चुन पाना कठिन हैं। कभी-कभी अल्पचर्चित कविताऍं अज्ञेय की काव्यभाषा और काव्यशिल्प की विशेषता से अधिक परिचित कराती हैं। अज्ञेय के लिए भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, अपने से एक नया साक्षात्कार हैं। नयी काव्यभाषा के कारण हम यथार्थ को अधिक नए रूप में जानने लगते हैं।

काव्यभाषा और सृजनात्मक बोध के प्रति अज्ञेय हमेशा सजग रहे हैं। सृजन को बचाना उनके काव्य की एक नैतिक चुनौती हैं। नया बोध, नई संवेदना के लिए नई भाषा को वे कविता में प्रस्तावित करते रहें। भाषा में ऐसे-ऐसे बिंबों की उन्होंने खोज की, जिसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया गया था। अज्ञेय सृजन क्रम में संवेदनात्मक भोंथरेपन से लगातार जूसते रहे हैं। यह उनके कवि कर्म की सार्थकता हैं।

सारांश :

अज्ञेय आधुनिक भावबोध के एक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने काव्यभाषा और काव्यशिल्प की दृष्टि से खड़ी बोली की हिंदी कविता को नई समृद्धि दी हैं। उन्होंने छायावादी संस्कारों के प्रभाव से मुक्त होने में वह नई काव्यभाषा अर्जित की जिससे प्रयोगवाद और आगे नई कविता की पहचान बनी।

रोमांटिक- आधुनिक के बीच, वैयक्तिक-  निवैयक्तिक के बीच, शब्द और सत्य के बीच, अज्ञेय जो द्वंद अनुभव करते हैं, उसी से उनकी महत्वपूर्ण कविताऍं दुर्वांचल, नदी के द्वीप, यह द्वीप अकेला, बावरा अहेरी, बना दे चितेरे, असाध्य वीणा संभव हुई हैं।

अज्ञेय की आत्म-चेतना बिंब, प्रतीक, मिथक, नये सादृश्यविधान के साथ एक विशेष संबंध बनाती हैं, जिससे आदर्श काव्यभाषा का संगठन संभव होता हैं। काव्यभाषा की नई खोज कवि के लिए एक नया साक्षात्कार या आत्म -साक्षात्कार हैं, और परम्परागत काव्यभाषा की नई खोज काव्यभाषा के लिए चुनौती हैं।

अज्ञेय की नयी काव्यभाषा आकस्मिक घटना नहीं हैं, उसके पीछे लंबा संघर्ष हैं। अज्ञेय अपनी परिचित अभ्यस्त मार्ग पर चलकर ही अपना काव्यभाषा और काव्यशिल्प  विकसित करते हैं। उनकी छोटी कविताऍं कभी अवधारणात्मक हैं, तो कभी प्रगीतात्मक। उनकी लंबी कविताऍं नाटकीय भी हैं, और प्रगीतात्मक भी है। अज्ञेय की काव्यभाषा और काव्यशिल्प के पीछे एक लंबा संघर्ष हैं। अज्ञेय के लिए भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, अपने से एक नया साक्षात्कार हैं।

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