IGNOU MHD - 02: आधुनिक हिंदी काव्य,
रघुवीर सहाय की कविताओं के रचनात्मक वैशिष्टय
IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment
(5) रघुवीर सहाय की कविताओं के रचनात्मक वैशिष्टय को रेखांकित कीजिए। (16)
उत्तर:- रघुवीर सहाय की कविता- विचारवस्तु के विविध आयाम :-
रघुवीर सहाय ने दूसरा सप्तक में दिये गये अपने वक्तव्य में कहा था कि "विचारवस्तु का कविता में खून की तरह दौड़ते रहना कविता को शक्ति देता है" और यह तभी संभव हैं, जब हमारी कविता की जड़े यथार्थ में हों। जिस तरह यथार्थ के विविध आयाम होते हैं, उसी तरह यथार्थ को आधार बनाने वाली कविता भी बहुआयामी हो जाती हैं। रघुवीर सहाय अपनी कविता को समय और समाज के यथार्थ से जोड़ते हैं।
(i) समय की अवधारणा :-
समय के बारे में रघुवीर सहाय की एक अवधारणा "सीढ़ियों पर धूप में" एक स्थान पर उन्होने लिखा हैं। "रचना के लिए किसी न किसी रूप में वर्तमान से पलायन
आवश्यक हैं। कोई-कोई ही इस पलायन को सुरुचिपूर्वक निभा पाते हैं। अधिकतर लोग अतीत के गौरव में लौट जाने की भद्दी गलती कर बैठते हैं, और यह भूल जाते है कि वर्तमान से मुक्त होने का प्रयोजन कालातीत होना हैं, मृत जीवन का भूत बनना नहीं"। समय के आर-पार देखने की यानी कालातीत होने की यह लेखकीय चाह रघुवीर सहाय के काव्य में भी व्यक्त होती हैं। इसका एक काव्यात्मक प्रयास 'घड़ी' श्रृंखला की तीसरी कविता में देखने को मिलता हैं---
"घड़ी नहीं कहती है 'डिग' जा अपने पथ सेडिग जाने पर घड़ी नहीं कहती है 'धिक'और यह तो वह कभी नहीं कहती है, साथी ठीक हैंवह कहती हैं टिक-टिक-टिक-टिक-टिक-टिक-टिक
यह टिकने का अहसास हैं, जिसके बगैर कोई भी रचनात्मक कर्म संभव नहीं हैं। इस स्थिरत्व की इच्छा या समय के आर-पार जाने की इच्छा आधुनिक संदर्भ में समाज से जुड़े बगैर संभव नहीं हैं।
(ii) कविता का वैचारिक आयाम :-
समय को आर-पार देखने के लिए एक विजन या विचारधारात्मक दृष्टि की जरूरत पड़ती हैं। रघुवीर सहाय ने अपने श्रम और प्रतिभा से उस "विजन" या उस "विद्या" को हासिल किया था, हमें जो मुक्त करती हैं। रघुवीर सहाय ने भी अपने समय और समाज को काफी गहराई में उतर कर देखा था। उन्होने लिखा है, समाज की समझ का मतलब है, समाज में मनुष्य और मनुष्य के बीच जितने गैर इंसानी रिश्ते हैं, उनकी समझ कहाँ से वे पैदा होते हैं, इसकी समझ और उनकी जड़ों तक पहुँच इतिहास की समझ। रघुवीर सहाय की बहुत सी कविताएँ अपने समय की आर-पार जाती हुई आज के यथार्थ की रचनाएँ बन जाती हैं। रघुवीर सहाय के पास ऐसा 'विजन' था, जिससे वे यह समझते थे कि भारतीय आवाम पर राज बरकरार रखने के लिए पूंजीवादी - सामंती तत्व धन का प्रभाव फैला कर दलबदल की राजनीति को बढ़ावा देंगे, जबकि दलबदल की यह राजनीति आकर्षक जनवादी नारों के ताने-बाने और नये-नये वायदों के साथ देश पर हावी होगी। भारतीय समाज पर जातिवाद की इस कठिन जकड़बन्दी को कवि ने गहराई से महसूस किया था। यह रोग हमारे संस्कारों का एक हिस्सा बन गया हैं, इससे कथनी और करनी में भेद भी दिखायी देता हैं। इसी ओर संकेत करते हुये रघुवीर सहाय ने लिखा हैं---
"बनिया बनिया रहेबाम्हन बाम्हन और कायथ कायथ रहेपर जब कविता लिखे तो आधुनिकहो जाये। खींसे बा दे, जब कहे तब गा दे"।
रघुवीर सहाय की कविताओं में अधिनायकवाद की एक और प्रवृति पर भी चोट हैं, वह हैं- अहंकार की प्रवृति। यह अहंकार भी मनुष्य और मनुष्य के बीच नाबराबरी की भावना से ही पैदा होता हैं। रघुवीर सहाय ने मध्यवर्गीय समाज को यह अहसास दिलाया कि अकेले-अकेल रहकर अधिनायकवादी ताकदों से जीता नहीं जा सकता। रघुवीर सहाय ने स्पष्ट्र लिखा है कि खुलेआम जनसाधारण के बारे में लिखने का अहंकार करने वाले कवियों में भी अंह हो सकता हैं, यह आज ही प्रकट होकर दिख रहा हैं। रघुवीर के यहाँ कला का अर्थ सिर्फ वह नहीं हैं, जिसे हम समझते हैं, कहते हैं----
कला बदल सकती हैं क्या समाज ?नही, जहाॅं बहुत कला होगी, परिवर्तन नहीं होगा।
इस तरह रघुवीर की कविताओं में वैचारिक आयाम दिखाई देता हैं। रघुवीर सहाय नये दौर के दमन की महीन प्रक्रिया को बखूबी समझते थे। इसलिए वे बेबाक तरीके से कहते थे कि-- देते है हथियार, शासक गरीबों को, पानी नहीं देते, पोखरण में अणु-अस्त्र विस्फोट के बाद नयी सदी की पहली गरमी के दिनों में पानी की कमी हैं।
रघुवीर सहाय की कविता में 'पानी' का बिंब शुरू की कविताओं से लेकर अंत तक बार-बार आया हैं। अत: पानी के कारण अकाल की स्थितियाॅं कहीं न कहीं बनी रहती हैं।
(iii) रचनात्मक लक्ष्य : जन पक्षधरता :-
रघुवीर सहाय मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता और सामाजिक न्याय की लड़ाई के प्रति अपने को प्रतिश्रुत किये हुये थें, इसलिए वे ऐसे हर अमानवीय और क्रूर हरकत के खिलाफ आवाज उठाते थे, जिससे समानता और भाईचारे के जनवादी मूल्य खंडित होते थें। रघुवीर अपनी कविताओं में लिखते हैं कि "जिस तरह रचनात्मकता और आजादी एक ही मानवीय आकांक्षा के पर्याय हैं, उसी तरह समता की लड़ाई और कविता भी एक ही मानवीय उत्कर्ष के पर्याय हैं। उनकी कविता का यहीं वैचारिक आधार था जिसने उन्हें समय के आर-पार देखता कवि या कालातीत रचनाकार बनाया हैं। अपनी इसी जनवादी आधार भूमि पर खड़े होने की वजह से वे तानाशाही के खिलाफ थें, और उनकी राष्ट्रवादी हरकतों का पर्दा फाश कर रहे थे। 'सच' क्या हैं कविता में लिखते हैं---
"इस झूठे करुणामय मन को धिक्कार हैंवह दुख ही सच्चा है जो हमने झेला हैं।"
इस तरह असमानता की इस गहरी चेतना को उन्होने अपने समाज और समाज में बुरी तरह फैला हुआ देखा था। असमानता की चेतना सिर्फ यह जानने की कोशिश करती है कि जो मारा गया वह हिंदु था या मुसलमान या सिख वह ऐसा नहीं कहते कि जो मारा गया वह इंसान था। जब तक हमारे लोग इन खून में रचे-बसे भेदभाव को नहीं पहचानते, तब तक एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज की संरचना संभव नहीं होगी। आजादी का सपना साकार नहीं होगा। इस तरह रघुवीर सहाय की काव्यदृष्टि में असमानता की चेतना और अहंकार की भावना की पहचान शुरू से अंत तक बनी रही और इसीलिए वे शोषकवर्गों की पाखंडमयी सहानुभूति, दया की धज्जियाॅं उड़ाते रहे।
रघुवीर सहाय का मनुष्य-मनुष्य के बीच समानता की भावना रखने वाले नये मानव की खोज उनका रचनात्मक लक्ष्य था। मूल्यों के स्तर पर बेहतर आदमी बनाने की उनकी कामना से ही उनकी रचनात्मकता को उर्जा मिलती थीं। शोषित जन के प्रति सहानुभूति, करुणा, दया न करके उसे उसके खुद के संघर्षो के माध्यम से मुक्त होते देखना चाहते थें। वे शोषित जन की हैसियत को इस समाज में जैसी है - वैसी नहीं देखना चाहते थें। जहाँ भी नाबराबरी को अमल में आते देखते थे, वे अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर भी बोलते थें। रघुवीर सहाय की पक्षधरता जिससे अनुशासित था उनका रचनाकर्म और इसी पक्षधरता के कारण वे समय के आर-पार जाते हुए कवि थें। साहित्य और कला का इतिहास गवाह है कि जो कवि साधारण जन के शोषित और दमित जन के पक्षधर रहे वे ही कालातीत भी हुए।
(iv) नारी के प्रति दृष्टिकोण :-
रघुवीर सहाय की कविता में नारी का एक खास तरह का स्थान हैं। वे नारी को भी समतावादी दृष्टिकोण से ही देखना पसंद करते थें। हिंदी के ज्यादातर रचनाकार नारी को 'अबला' समझकर उसके प्रति 'दया' का भाव प्रदर्शित करते रहे हैं, परन्तु रघुवीर दया के प्रदर्शन को हीन और असहाय मानते रहे। वे खुद को समर्थ, बड़ा बनाने की चेष्टा देते रहे। वे इस बात को समझते थे कि दया का भाव बराबरी के मूल्य पर चोट करता हैं। जो नारियॉं श्रम करती हैं, उनके प्रति रघुवीर सहाय में समानता का भाव ही परिलक्षित होता हैं। नारी-पुरुष की समानता और सहधर्मिता के आदर्श को कवि ने इस प्रकार वाणी प्रदान की हैं---
"बंधु हम दोनों थके हैंऔर थकते ही रहे तो साथ चलते भी रहेंगे।"
औरतों के प्रति इस तरह की विनोदप्रियता का लज्जा रघुवीर सहाय के बाद की कविताओं में नहीं मिलता, बल्कि उसमें नारी जाति की त्रासदी की एक अंतधारा बहती दिखती हैं। रघुवीर सहाय नारी की अंतश्चेतना में भी अपने समतावादी नजरिये से और यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर प्रवेश करते हैं। यही उनकी विशेषता हैं।
सारांश:-
(i) रघुवीर सहाय की कविता अपने समय का आलोचनात्मक साक्षात्कार करती हैं।
(ii) वे मानते है कि वर्तमान को सर्जना का विषय बनाने के लिए जरुरी है कि रचनाकार वर्तमान से मुक्त हो।
(iii) रघुवीर सहाय ने समाज की गहरी पहचान हासिल की थीं। इसलिए शोषक और शोषित की भी उन्हें खरी पहचान थीं। शोषक वर्ग की चालबाजियों को उन्होंने बखूबी नंगा करने का प्रयत्न किया हैं।
(iv) मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता और सामाजिक न्याय के उनके रचनाकर्म का लक्ष्य रहा हैं।
(v) नारी के प्रति रघुवीर सहाय का दृष्टिकोण समता का रहा हैं। समाज में नारी की स्थिति का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया हैं।
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