IGNOU MHD - 02: आधुनिक हिंदी काव्य,
व्याख्या:- यह दीप अकेला स्नेह भरा
IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment
(1) निम्नलिखित काव्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए: (12×3=36)
क) यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसे भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है: गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा?
पनडुब्बा: ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा !
यह अद्वितीय: यह मेरा: यह मैं स्वयं विसर्जित :
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इस को भी पंक्ति को दे दो।
उत्तर:-
प्रसंग:-
प्रस्तुत पद्यांश प्रयोगवाद के प्रणेता सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" द्वारा रचित कविता 'यह दीप अकेला' से उद्धृत हैं।
सन्दर्भ:-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि 'अज्ञेय' जी सामाजिकता को स्वीकार करते हुए सर्जक व्यक्तित्व का अकेलापन और अद्वितीयता को बचाए रखने की बात कहते हैं। वह अपनी सुरक्षित निजता से ही समाज को पहचानने की कोशिश करते हैं।
व्याख्या:-
कवि ने कहा है कि यह दीप जो अकेले हैं, किन्तु स्नेह गर्व (स्वाभिमान) से भरा हुआ है, मदमस्त है, उसे भी अन्य दीपमालाओं में शामिल कर दो, अर्थात 'अज्ञेय' जी उस अकेले व्याक्ति को जो दीप की भाॅंति स्नेह और स्वाभिमान से परिपूर्ण हैं, उसे समाज को समर्पित करने की बात करते हैं, किन्तु वे यह भी कहते हैं कि सामाजिकता के बाद भी अद्वितीयता उसका अपनापन, विशिष्टता, वैयक्तिता को विसर्जित अर्थात समाप्त न होने दो। सामूहिक जीवन के बीच कवि समाज का महत्व वहीं तक स्वीकारता है, जहाॅं तक वह व्यक्ति के विकास में सहायक होता हैं।
कवि सामूहिक जीवन के बीच व्यक्ति की निजी असीमित को सुरक्षित रखने की अभिलाषा करते हैं, क्योंकि वह अकेला व्यक्ति जिस अमर गीत को गाता है, उसे फिर कौन गा सकेगा। पानी में डूबकर अथाह सागर में गोते लगाकर सच्चे मोती को कौन लाएगा। वह अपने रचनाओं, कृतियों द्वारा समिधा रूपी जिस आग को व्यक्ति के अन्दर सुलगाता है, उसे विरले ही कोई सुलगा सकता हैं।
अतः इस अकेले दीपक रुपी विशिष्ट व्यक्तित्व को सामाजिक बनाकर उसकी व्यैक्तिकता को समाप्त न होने दो, उसे पंक्ति रूपी समाज में शामिल करो, किंतु उसके अद्वितीयता और व्यैक्तियता को बने रहने दो। व्यक्ति को कवि समाज के सारभूत रूप में प्रस्तुत करता हैं, क्योंकि व्यक्ति समाज से निरपेक्ष और आत्मा सुरक्षित रहें।
विषेश:-
(i) अज्ञेय जी ने दीपक और पंक्ति को क्रमशः व्यक्ति और समाज का प्रतीक चुनकर एक नया प्रयोग किया हैं।
(ii) नदी केन्द्रीय कविता में भी अज्ञेय जी ने इसी विचारधारा को सामने रखा हैं।
(iii) सामाजिकता और व्यैक्तिकता का द्वंद अज्ञेय जी की कविता का बहुत जरूरी संदर्भ हैं। नयी कविता के इस प्रमुख द्वंद को 'अज्ञेय' जी ने यहाँ प्रस्तुत किया हैं।
(iv) कवि ने व्यक्ति को समष्टि के साथ जोड़ने की बात की है, क्योंकि समष्टि के अभाव में व्यष्टि महत्वहीन हैं।
(v) अकेला दीपक जो स्नेह भरा, गर्व भरा हैं। सृजनात्मक अद्वितीयता अर्थात व्यैक्तिकता का प्रतीक हैं। 'अज्ञेय' उसे पंक्ति को अर्थात सामाजिकता को देना चाहते हैं, पर उसके अकेलेपन को जीवंत स्वाधीन रखकर।
ख) मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है जितना मास्को का लाल तारा
मेरे दिल में पेकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंखनाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्यप को चीर रही हैं।
उत्तर:-
प्रसंग:-
प्रस्तुत पंक्तियाॅं हमारी पाठ्य पुस्तक "आधुनिक काव्य विविधा" के "अमन का राग" नामक कविता से अवतरित हैं। जिसके रचयिता "शमशेर बहादुर सिंह" हैं, जो प्रगतिशील काव्यांदोलन के मार्क्सवादी चिंतक हैं।
सन्दर्भ:-
दूसरे तार सप्तक के कवि 'शमशेर बहादुर सिंह' ने अपनी इस कविता में शांति और विश्वबन्धुत्व की भावना को अहमियत देते हुए परम्परा और विश्व की सांस्कृतिक धरोहर के प्रति अपना आदर भाव अभिव्यक्त करते हैं।
व्याख्या:-
वैश्विक सांस्कृतिक समाजस्य की बात करते हुए शमशेर बहादुर जी कहते है कि मुझे विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश अमेरिका को लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है, जितना की सोवियत रूस के मास्को का लाल तारा अर्थात वह इन दोनों को समान महत्व देते हैं। कवि कहते है कि मेरे लिए चीन की राजधानी पेचिंग का स्वार्णीय महल उतना ही पवित्र हैं, जितना की मुस्लिम तीर्थ स्थल मक्का-मदीना यहाँ तक की वे कहते है कि प्राचीन धार्मिक एंव सांस्कृतिक नगरी काशी और वोल्गा से आए हुए आर्यों के शंखनाद से कोई अन्तर नहीं दिखाई पड़ता। इस प्रकार कि विश्व बंधुत्व एवं सांस्कृतिक सामंजस्य की भावना से ओत-प्रोत शमशेर जी मानते है कि मेरी कविता रचनाएँ रूपी देहली (मकान) में प्रहलाद की तपस्या रुपी विचारधाराऍं एवं भावनाएँ विभिन्न प्रकार कि सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक विचारधाराओं से युक्त दोनों दुनियाओं की चौखट पर विचारों एव भावनाओं आदि के युद्ध रूपी हिरण्यकश्यप को चिरने का काम कर रही हैं।
विशेष:-
(i) इस कविता में विभिन्न सृजनात्मक विधाओं और विभिन्न सांस्कृतिकों के बीच जो बुनियादी एकता है उसे रेखांकित किया गया है।
(ii) इस कविता में सांस्कृतिक सामंजस्य पर बल दिया गया हैंं।
(iii) कविता का दूसरा संदेश यह है कि हर घर में, हर युग में, और हर देश में शांति की जरूरत हैं।
(iv) कविता के अंतिम पंक्तियों द्वारा यह बताया गया है कि विश्वशति में' कवियों का उनकी रचनाओं में विशेष योगदान होता हैं।
ग) लोग या तो कृपा करते हैं या खुशामद करते हैं
लोग या तो ईर्ष्या करते हैं या चुगली खाते हैं
लोग या तो शिष्टाचार करते हैं या खिसियाते हैं
लोग या तो पश्चात्ताप करते हैं या घिघियाते हैं
न कोई तारीफ़ करता है न कोई बुराई करता है
न कोई हँसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफरत
लोग या तो दया करते हैं या घमण्ड
दुनिया एक फँफुदियायी हुई सी चीज़ हो गयी है।
उत्तर:-
प्रसंग:-
प्रस्तुत पंक्तियाॅं हमारी पाठ्य पुस्तक "आधुनिक काव्य विविधा" के नयी कविता के कवि "रघुवीर सहाय" द्वारा रचित "दुनिया" कविता से उद्धत है, जो उनके काव्य संग्रह दुनिया से संकलित हैं।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पद्यावतरण में कवि रघुवीर सहाय ने लोगों के अनुदान और स्वार्थी मनोभावों की ओर संकेत करते हुए कहते है कि मनुष्य जब सिकुड़कर व्यक्ति हो जाता है, तब किस प्रकार का अनुभव होता हैं। इस कविता में इसी मनोभाव को अभिव्यक्त किया गया हैं।
व्याख्या:-
रघुवीर सहाय जी कहते हैं कि बढ़ती हुई महत्वाकांक्षा ने लोगों को या मनुष्यों को खुशामदी, ईर्ष्यालु और चुगलखोर बना दिया हैं। लोग या तो कृपा करते है या खुशामद करते है या तो ईर्ष्या करते हैं अर्थात लोगों के सुख समृद्धि को देखकर जलते है या चुगली करते है या एक दूसरे की शिकायत करते हैं। लोग या तो शिष्टाचार करते है या खिसियाते है, अर्थात अपनी करनी पर पश्चाताप करते हैं या घिघियाते अर्थात अपनी गलती पर क्षमा याचना कर शब्द बोलते हैं।
रघुवीर सहाय जी कहते हैं कि आज व्यक्ति इतने अनुदात्त और स्वार्थी हो गए हैं कि न तो कोई किसी की तारीफ (बड़ाई या प्रशंसा) करता है न बुराई करता है, न कोई हॅंसता है, और न रोता हैं, न कोई प्यार करता है और न नफरत करता हैं। यहाँ तक देखा गया है कि लोग या तो दूसरो पर दया करते हैं या घमण्ड अर्थात अहंकार करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों के अन्दर से वे सारे भाव, संवेदनाए आदि लुप्त हो गई हैं, जिससे वह विभिन्न अवसरों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करता, जो व्यक्ति की उदारता और मानवता की पहचान हैं। अतः कवि कहता है कि यह दुनियाँ एक ऐसी वस्तु की तरह हो गयी है, जिस पर फॅंफूदी लग गई हैं, अर्थात वह वस्तु किसी के लिए उपयोगी नहीं रह गयी हैं। उससे किसी का हित नहीं हो सकता। उसी प्रकार मानव स्वार्थी एवं अनुदात्त हो गया हैं।
विशेष:-
(i) इस कविता में अस्तित्ववादी अर्थहीनता का बोध हैं।
(ii) व्यक्ति की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षा के कारण उसके अन्दर की संवेदना, मानवता, नैतिकता शून्य होने का उल्लेख हैं।
(iii) मनुष्य स्वार्थ में वशीभूत होकर किस प्रकार व्यक्ति बन गया है, इसका सोदाहरण वर्णन किया गया हैं।
(iv) कवि द्वारा दूनिया को फॅंफुदियायी हुई चीज कहना बिल्कुल सार्थक उपमान हैं।
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