"अंधेरे में" कविता का कथ्य स्पष्ट ["andhere mein" kavita ka kathy spasht] (आधुनिक हिंदी काव्य) IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment

IGNOU MHD - 02: आधुनिक हिंदी काव्य,
"अंधेरे में" कविता का कथ्य स्पष्ट
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(5) "अंधेरे में" कविता का कथ्य स्पष्ट कीजिए।  (16)

उत्तर:-"अंधेरे में" कविता का कथ्य:-

मुक्तिबोध की अधिकांश कविताओं में आत्म संघर्ष से आत्म-साक्षात्कार और फिर जगत- साक्षात्कार की प्रक्रिया का अत्यंत स्पष्ट संकेत मिलता हैं। अपने अंतर-बाह्य का व्यापक सर्वेक्षण ही नहीं, 'आत्मा' का संशोधन संपादन अर्थात आत्मविस्तार संस्कार से लेकर सामाजिक साक्षात्कार की ओर उन्मुख हो जाता हैं। मुक्तिबोध इस आत्मा को कहीं वे "मैं" और "वह" में विभक्त करते है तो कहीं' अन्तर्मन और बाहृय मन के द्वंद के रूप में प्रस्तुत करते हैं। मुक्तिबोध ने 'वह' को "गुप्तमन" या अन्तरात्मा का प्रतिनिधि माना है, जो "अंधेरी दुरियों से उभर कर दुनियादार मन 'मैं' की 'कनपटी पर जोर का आधात कर' उसे आगाह करता है कि 'अरे' कब तक रहोगे आप अपनी ओट, कहाँ मिल पाओगे उनसे कि जिनमें जनम ले निकले। इससे स्पष्ट है कि मुक्तिबोध के यहाँ आत्म संघर्ष आत्मबद्धता की दशा के परिहार के लिए है, "आत्म" के समाजीकरण के उद्देश्य से है। "ब्रह्मराक्षस" का "वह" स्वयं ब्रह्मराक्षस है, जो "अंधेरी बावड़ी की घनी गहराइयों में" आत्मशोध करते हुए "मैं" को अपना 'सजल' उर शिष्य बनने के लिए विवश करता है। इस कविता में "वह" के माध्यम से "मैं" को बाह्यीकरण और "मैं" के माध्यम से "वह" के  अभ्यंतरीकरण की प्रक्रिया का विस्तृत उद्घाटन हुआ हैं।

यहाँ "वह" के रूप में गुप्त मन का 'मैं' के लिए निर्देश फलस्वरूप "मैं" अपनी मध्यवर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण इस प्रकार आश्रय लेता है। जैसे------

"कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में 

उमग कर 

जन्म लेना चाहता फिर से  

कि व्यक्तित्वांतरित होकर 

नये सिरे से समझना और जीना 

चाहता हूँ सच।"

अपने व्यक्तित्व का रुपान्तरण ही "फिर से जन्म लेना है"। ऐसी स्थिति में पहुॅंंच कर ही सच को वास्तविक यथार्थ को ठीक से समझा और जिया जा सकता हैं। "अंधेरे में" कविता का काव्य नायक "मैं" वह की आहट सुनता है, देखता है और पहचान भीं लेता है, लेकिन "वह" द्वारा प्रस्तुत सच्चाई को जीने से आनाकानी करता हैं। 'अंधेरे में' कविता के अन्तर्गत "मैं" की आत्मबद्धता "वह" के संपर्क से टूटती है और जन के साथ एकाकृत होकर "मैं" जनक्रांति की अनिवार्यता का अनुभव करता हैं। "अंधेरे में" की एक कविता जो इस प्रकार है---

"जिन्दगी के..... ।

कमरों में अंधेरे 

लगाता है चक्कर। 

कोई एक लगातार, 

आवाज पैरो की देती सुनाई 

बार-बार.... 

वह नहीं दीखता----------

किंतु रहा घूम 

तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक 

अस्तित्व जनाता 

अनिवार कोई एक 

और मेरे हृदय की धकधक 

पूछती है - वह कौन 

सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखायी।"

प्रस्तुत काव्यांश में, जिन्दगी के अंधेरे कमरों में चक्कर लगाने वाले के पैरों की आवाज मात्र सुनाई देती है, वह स्वयं दिखायी नहीं दे रहा है और अधिक अंतमंथन के बाद उभरते हुए चेहरे और शरीर की आकृति दिखाई देती हैं। 'अधेरे में' कविता में लाल-लाल मशाल के प्रकाश के रक्तालोक में नहाया हुआ दिव्य पुरुष साक्षात रहस्य के रूप में प्रकट हो जाता हैं।

(i) प्रथम खंड:-

प्रथम खंड में वह रहस्यमय व्यक्ति 'मै' समझ में आ जाता है-----

"वह अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है,

पूर्ण अवस्था वह

निज संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की 

मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव 

हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह

आत्गा की प्रतिमा।"

इससे 'मैं' के साथ 'वह' का रिश्ता स्पष्ट हो जाता हैं। मुक्तिबोध के यही आत्म साक्षात्कार है, जिसमें 'मैं' और 'वह' का द्वैत समाप्त हो जाता है, अन्तर्मन और बाह्यमन में एक रागात्मक संबंध स्थापित हो जाता हैं। ऐसा न होने पर 'मैं' और 'वह' के सामने एक गंभीर प्रश्न सामने आता है, जिनसे 'मैं' बचना चाहता हैं। अतः बाहर के गुंजान जंगल में आती हुई हवा से संवेदनात्मक ज्ञान की मशाल बुझ जाती है, जो 'मैं' को अपने 'निज' के दायरे से बाहर नहीं जाने देते 'मैं' के लिए अपने में बंद रह पाना सर्वथा संभव नही हो पाता।

(ii) दूसरा खंड:-

कविता के दूसरे खंड में काव्य नायक 'मैं' को लगता है कि कोई बाहर दरवाजे पर दस्तक दे रहा हैं। 'मैं' को जिज्ञासा होती है कि आखिर वह कौन हैं? जो ऑंधी रात के अंधेरे में मिलने आया है। 'मैं' को लगता है कि यह वह व्यक्ति है, जो मुझे तिलस्सी खोह में मिला था। काव्य नायक 'मैं' की सुविधाओं का तनिक भी ख्याल किए बिना, वह समय-असमय उपस्थित होता रहता हैं। वह समझता है और हदय को बिजली के झटके देता है, उसे देख कर काव्य नायक के हृदय में प्यार उमड़ आता है वह चाहता है----

"दरवाजा खोल कर बाहों" में कस लूॅं

हृदय में रख लूॅं, 

घुल जाऊं, मिल जाऊ, लिपट कर उससे"

काव्य नायक अरे नहीं, और फिर सोचता है, उसको मैं छोड़ नहीं सकूॅंगा। सहना पड़े मुझे चाहे जो भले ही। अंत: 'मैं' और 'वह' का मिलन संभव नहीं।

जैसे-ॶॅंधियारे सुने में रात का पक्षी चीख कर कहता है--

"वह चला गया है  

वह नही आयेगा…

अब तेरे द्वार पर 

वह निकल गया है 

गाॅंव में, शहर में। 

उसको तू खोज अब

उसका तू शोध कर 

वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति,

उसका तू शिष्य है

वह तेरी गुरु है, गुरु हैं.....।" 

यहाँ रात के पक्षी की आवाज 'वह' ज्ञानात्मक संवेदन है, जो रहस्य रात का पक्षी (परमात्मा) यह ज्ञानात्मक संवेदन 'मैं' को व्यक्तिवादी आत्म संघर्ष से हटाकर सामाजिक संघर्ष का स्वप्न प्रदान करता हैं। अतः उसे अपनी पूर्णतम परम  अभिव्यक्ति के लिए तिलस्मी खोह से निकल कर व्यापक समाज के मध्य आना पड़ता है, और जनजीवन को समझ कर उसके सहानुभूति के माध्यम से भागीदार बनना पड़ता हैं।

(iii) तीसरा खंड:-

कविता के तीसरे खंड में 'मैं' अपने अंधेरे कमरे से निकल कर बाहर गैलरी में आता हैं। वहाँ उसे समकालीन सामाजिक यथार्थ उसके आतंककारी स्वरूप का अहसास होता है, और अकेले कमरे में 'मैं' अपने को एक विचित्र स्थिति में पाता हैं। 'मैं' यहाँ 'वह' खिड़की खोलकर 'किसी असंभव घटना के भयावह संदेह से ग्रस्त हो जाता हैं। नगर के मध्य रात्रि अंधेरे के सुनसान में किसी बैण्ड-दल की आवाज और फिर सामने आने पर 'जुलूस' किसी मृत्युदल की शोभा यात्रा में बदल जाता हैं। ऑंधी रात के इस जुलूस में कर्नल, ब्रिग्रेडियर, जनरल, पूंजीवाद समर्थक व्यवस्था के  अमानवीय चरित्र को बेनकाब करते हुए यहाँ मुक्तिबोध ने कवि कलाकारों, बुद्धिजीवियों की हीनतर स्थिति को भी रेखांकित किया हैं।

(iv) चौथा खंड:-

कविता के चौथे खंड में काव्य नायक 'मैं' एक ओर 'मार्शल ला' लगे नगर में दम छोड़कर भागता है, तो दूसरी ओर सामने जमाने का निरीक्षण - परीक्षण भी करता हैं। काव्य नायक 'मैं' को नगर के चौराहे पर खड़ा विशालकाय बरगद दिखायी देता है, जो समस्त गरिबों और वंचितों का आश्रय  स्थल हैं। वहाँ काव्य नायक 'मैं' की पुनः 'वह' से भेट होती हैं, जो तिलस्मी खोह से भागकर नगरों गाॅंवों में लोगों के बीच चला गया था। इससे स्पष्ट है कि विशालकाय बरगद  साधारण जन की वर्गीय चेतना का प्रतीक हैं। जैसे इन पंक्तियों में ----

"वह सिरफिरा पागल कोई और नही संवेनात्मक उद्देश्य है

ओ मेरे आदर्शवादी मन 

अब तक क्या किया ? जीवन क्या जिया। 

ज्यादा लिया और दिया बहुत कम 

मर गया देश और जीवित रह गए तुम"।

वह आत्मा समाज से समस्त सुख सुविधाओं का भोग करके ही अनात्मक बन जाना अर्थात भ्रष्टाचार और शोषण पर परदा डालना हैं। किसी भ्रष्टाचारी के मार्ग को सुगम करना। भावना से कर्तव्य को हटा देना, हृदय के रागात्मक मन्तव्यों को मार डालना, अपने 'आप' की हत्या करना हैं। वस्तुतः यह पागल 'मैं' का ही अंत स्थित संवेदन हैं। अंतः इस पागल को रक्तालोक, स्नात पुरुष, परिपूर्ण का अभिर्भाव, आत्मा की प्रतिभा, ज्ञान का तनाव आदि संज्ञा दी गयी हैं।

(v) पाॅंचवा खंड:- 

कविता के पाॅंचवे खंड में काव्य नायक के कंधे पर एक बरगद पात टूट कर गिरता है, जिससे वह चौंक जाता हैं। उसे लगता है कि जैसे किसी ने उसके कंधे पर हाथ रख कर एक इशारा या संकेत दिया हैं। इस संकेत से प्रेरित होकर काव्य-नायक---

"भागता है दम छोड 

घूम गया कई मोड़।"

वह अपनी आंतरिक गुहा में पहुँच जाता हैं। उसका अंतर्गमन होता हैं। वहाॅं उसे अपने अनुभव - विवेक, वेदना- निष्कर्ष से परिपूर्ण प्रकाशमान मणियाॅं दिखायी पड़ता हैं। अत: अब इनका कोई उपयोग नहीं हो सका हैं।

(vi )छठा खंड:-

कविता का छठा खंड काव्य- नायक की इस चिंता से आरंभ होता है कि उसने अपनी अमूल्य रत्न राशि अर्थात महत्वपूर्ण जीवानुभवों को------

"गुहावास दे दिया

लोक-हित क्षेत्र से कर दिया वंचित 

जनापयोग से वर्जित कर

खोह में डाल दिया"

अब उन्हें लेकर वह कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होता है---"यह न समय है, जूझना ही तय है।" जमाने का निरीक्षण-परीक्षण करते हुए काव्य-नायक तिलक की पाषाणमूर्ति के निकट पहुँचता है, इसके बाद उसकी भेंट अति दीन-दशा में पहुॅंचे महात्मा गांधी से होती हैं। मुक्ति संग्राग के इन दोनों योद्धाओं के सकारात्मक तत्वों को ग्रहण कर काव्य-नायक को एक नयी उर्जा मिलती हैं। मुक्तिबोध के इन पक्तियों में----

"मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था 

संभालना इसको सुरक्षित रखना"

इससे स्पष्ट है कि गांधीवादी दर्शन और उनकी अंहिसावादी नीति अब गुजर गए जमाने की बात हैं। यहाँ गांधी की गोद में सोया हुआ शिशु भारतीय 'जन गण' का भविष्य है, जिसे सुरक्षित रखने और आगे बढ़ाने का दायित्व काव्य-नायक को मिलता हैं।

(vii) सातवाॅं खंड:-

कविता का सातवाॅं खंड यातना गृह से काव्य-नायक की रिहाई से आरंभ होता है। इसके दूसरे बंद में 'मुझे अब खोजने होगें साथी की समस्या को सुलझाने के लिए 'मैं' बाहर की ओर नहीं अपने भीतर की ओर उन्मुख होता हैं।

"काले गुलाब और स्याह सिवन्ती 

स्याम चमेली 

संवलाए कमल जो खोहों के जल में 

भूमि के भीतर पाताल तल में 

खिले हुए कब से भेजते हैं संकेत"

"ये संकेत काव्य-नायक के लिए अत्याधिक महत्वपूर्ण बन जाते है, और काव्य चमत्कार रंगीन किंतु ठंडा पड़ जाता हैं। अरे, इन कागज के फूलों से मेरा काम नहीं चलेगा"।

सातवें खंड के तीसरे बंद में काव्य-नायक एक निर्णय की स्थिति में आता है---

"अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे 

उठाने ही होंगे 

तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब 

पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के पार 

तब कहीं देखने को मिलेंगी बाहें 

जिसमें कि प्रतिपल कांपता रहता 

अरुण कमल एक"

यहाँ अभिव्यक्ति के खतरे कलात्मक अभिव्यक्ति के खतरे नहीं हैं। मठ और गढ़ भी कलावादी- साहित्यिक मठ और गढ़ नहीं है। ये क्रूर शोषण और उत्पीड़न पर आधारित पूँजीवादी सत्ता के वैचारिक सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक गढ़ हैं। इन गढ़ों को तोड़ने के खतरे वस्तुतः सामाजिक संघर्ष के खतरे हैं, जिनका उद्देश्य एक नयी समाज व्यवस्था की स्थापना है। इस खतरे को उठाने के बाद ही, अरुण कमल से युक्त बाहें देखने को मिलेंगी। यह सामाजिक संघर्ष की, क्रांति की परम सिद्धि है। इन गढ़ों को मुक्तिबोध ने अपनी अनेक कविताओं में "प्रतापी सूर्य", "सियाह चक्रव्यूह", "शोषण की सभ्यता के नियमों के अनुसार बना हुआ दुर्ग" आदि की संज्ञा दी है।

मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में 'सूर्या' से प्रांगण के रूप में इसका संकेत इस प्रकार किया हैं---

"सचमुच मुझको तो जिन्दगी की सरहद 

सूर्या के प्रांगण पार जाती सी दीखती।।"

यहाँ सूर्या के "प्रांगण पार" से कवि का अभिप्राय है-- पूंजीवाद के अकाटय लगने वाले सिद्धांत जो पूँजीवादी तंत्र और उसकी व्यवस्था का पोषण करते है, लेकिन सामाजिक व्यवस्था इसकी सरहद के पार भी जाती है--- समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्था के रूप में। अपनी "अंतकरण का  आयतन" कविता में इसे मुक्तिबोध ने अत्यन्त स्पष्ट रूप से रेखांकित किया हैं-----

"सुकोमल काल्पनिक तल पर 

नहीं है द्वंद का उत्तर"

प्रस्तुत कविता के अंतिम छंद में भी कवि में इसी निष्कर्ष को प्रस्तुत किया है कि नयी सामाजिक रचना के लिए पूँजीवाद की भी समाप्ति अनिवार्य है, जो जन क्रांति से भी संभव हो सकती हैं।

(viii) आठवाॅं खंड:--

कविता के आंठवे खंड में काव्य-नायक का हृदय एकाएक धड़क कर रूक जाता है, क्योंकि नगर में भयानक धुॅंआ उठ रहा है "कहीं आग लग गई, कही गोली चल गई"---  लेकिन इनके मध्य प्रस्तुत होने वाले कल्पना बिम्ब भिन्न हैं। पहले खंड में काव्य-नायक को वातावरण में "अदृश्य ज्वाला की गर्मी का आवेग" और जनमत उद्देश्य की' एकता दिखाई देती हैं। जो कवि ने इस प्रकार कहा है----

"सब चुप साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक       

चिंतक शिल्पकार, नर्तक चुप हैं।"

इस कविता में क्रांति की ठोस तैयारी----भौतिक, मानसिक दोनों का संकेत हैं। आंठवे खंड में काव्य नायक अपनी सहानुभूतिशील कल्पना के माध्यम से क्रांति की अनिवार्यता और वांछनीयता को रेखांकित किया हैं।

(ix) नौवा खंड:--

इस खंड में काव्य नायक का स्वप्न भंग होता हैं।

"एकाएक फिर स्वप्न भंग 

बिखर गये चित्र कि मैं फिर अकेला"

क्रांति का यह स्वप्न काव्य नायक 'मैं' में एक आह्लाद जगाकर ही समाप्त नहीं हो जाता। काव्य नायक कहता है-- -

"अनखोजी निज समृद्धि का वह परम उत्कर्ष 

परम अभिव्यक्ति 

मैं उसका शिष्य हूॅं

वह मेरी गुरु है, गुरु है।"

इस प्रकार 'वह' स्वयं जन में रुपान्तरित होकर जनक्रांति का अग्रदूत बन जाता है, और "मैं" अंब 'पलातक शिष्य' न रहकर पूर्ण अनुशासित शिष्य बन कर अपने को जन के साथ एकाकार करने का प्रयास करता हैं।

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