MHD - 02: आधुनिक हिंदी काव्य, IGNOU MHD
नवजागरण और राष्ट्रीय आंदोलन
IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment

(2) नवजागरण और राष्ट्रीय आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में भारतेंदु हरिश्चन्द्र और मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं का तुलनात्मक विश्लेषण कीजिए। (16)
उत्तर:- आधुनिक हिन्दी कविता का आरंम्भ भारतेन्दु बाबू 'हरिशचंन्द्र' से होता हैं। हिन्दी कविता में भारतेन्दु और द्विवेदी युग नवजागरण की अभिव्यक्ति के प्रमुख स्रोत और माध्यम रहे हैं। भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीयता की चेतना की पृष्ठिभूमि भी भारतेन्दु और द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि 'मैथलीशरण गुप्त' की कविता से प्राप्त होती हैं। नवजागरण की दृष्टि से भारतेन्दु के तत्व प्राचीन संस्कृति पर उसकी निर्भरता, ईश्वर की जगह मानवकेंद्रिता और एक जातीय भाषा के रुप में हिन्दी खड़ी बोली की स्वीकृति हैं।
जबकि द्विवेदी युग तक आते-आते साहित्य और समाज का यह द्वंद तीव्रतर होता दिखाई पड़ता हैं। राष्ट्रीय नवजागरण और राष्ट्रीय आन्दोलन के आलोक में साहित्य नख-शिख वर्णन वाली रीतिवादी परम्परा से स्वयं को काफी हद तक मुक्त कर लेता हैं। यथार्थ की बदली हुई परिस्थितियों में भाषा, विषय, कहने का ढंग इन तीनों में नये रूप और नये विषय की तलाश द्विवेदी युग की एक मुख्य विशेषता रही हैं। नवजागरण की दृष्टि से ये दोनों युग संक्रमणकालीम स्थिति का आभास देते हैं। नये -पुराने के बीच संघर्ष की स्थिति, प्राचीन के प्रति मोह और नये के तिरस्कार के साथ ही नये के प्रति आकर्षण और पुराने के प्रति तिरस्कार दोनों स्थितियों को यहाँ देखा जा सकता हैं।
भारतेंदु अपने छोटे से जीवन में देश के विभिन्न भागों की अनेको यात्राऍं की थी। बंगाल की यात्राओं का लाभ उन्हें वहाँ समाज-सुधार की प्रगति देखकर मिला। सन् 1828 ई॰ में ही बंगाल में ब्रह्म समाज की स्थापना हो चुकी थी। बाल-विवाह का रोक, विधवा-विवाह की अनुमति, नारी शिक्षा, अंधविश्वासों का नकार आदि सामाजिक क्रांति के स्वर वहाँ गूंजने लगे थें, जिसका खुले मन से स्वीकार कर हिंदी प्रदेश में वे यह ज्योति ले आए और खुलकर सामाजिक सुधारों का झंडा उठा लिया। अपनी स्वतंत्र कृविताओं के अलावा नाटकों के लिए लिखी गई कविताओं में भी समाज सुधार के उनके विचार अभिव्यक्त हुए हैं।
भारतेन्दु को नारी के प्रति उनकी दृष्टिकोण में बंगाल के नवजागरण मूलक सुधार आंदोलनो का व्यापक प्रभाव था। भारतेन्दु नारी शिक्षा के हिमायती थें, पर वैश्यागमन के खिलाफ थे। नारी को पुरुस के बराबर मानने के पक्षधर थें। भारतेन्दु विधवा-विवाह के समर्थक थे। "वैदिकी हिंसा-हिंसा न भवति" में बंगाली पात्र द्वारा उच्चारित यह श्लोक विद्यासागर से ही प्रेरित था।
नष्टे मृते प्रवजिते क्लीवे च पतितै पतौ।
पंच स्वायत्सु नारीणा पतिरुयो विधीयते ॥
भारतेन्दु के युग में राजभक्ति का द्वंद था, जबकि गुप्त जी के समय में अंग्रेजो का चरित्र पूरी तरह खुल कर सामने आ गया था। उनसे सामना करने के लिए राजनीतिक स्तर पर क्रांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। राजभक्ति का भारतेन्दु युग वाला द्वंद गुप्त जी के युग में नहीं था, इसलिए गुप्त जी की कविताओं में राष्ट्रीय नवजागरण के स्वर ज्यादा विकसित, ज्यादा उग्र एंव आक्रामक रुप से दिखाई पड़ते हैं। गुप्तजी राष्ट्रीय नवजागरण के लिए वे अतीत की इसी मिथकीय दुनिया को संस्कारों से, सामुहिक स्वप्नों से निकाल कर वर्तमान में प्रक्षेपित करते हैं। गुप्तजी "भारत भारती" में अपने वैष्णवी संस्कारों प्रगतिशील भावना और वर्ण-व्यवस्था के सामाजिक आदर्श की कल्पना करते हैं। वे हिंदू समाज में व्याप्त निराशा को दूर करने के लिए प्राचीन आदर्श व्यवस्था की पुनः स्थापना का स्वप्न देखते हैं। गुप्तजी के "भारत-भारती" में समाज की देश की समाज-सुधार की राष्ट्रीय चेतना की वह समझ यहीं थी कि जातिमूलक सुधारों से देश का गौरव वापिस लाया जा सकता हैं।
भारतेन्दु छुआछुत, बाल-विवाह, जन्मपत्री देखकर विवाह करना, विदेश यमन पर रोक, मूर्तिपूजा आदि ढकोसले अंधविश्वासों का खुलकर विरोध करते थें, जिन्होंने समाज को रूढ़िवादी बनाकर पतन में धकेल दिया हैं। समाज की रूढ़िवादीता का विरोध करते हुए भारतेन्दु शिक्षा और अपनी भाषा के प्रति उदासीनता के लिए भी चिंता व्यक्त करते हैं। भारतेन्दु नवजागरण की इस प्रवृति के पक्षधर थें, और चाहते थें कि लोग अंग्रेजी सीख कर विश्व के ज्ञान-विज्ञान से परिचित हो। भारतेन्दु अंग्रेजी के साथ अपनी निजभाषा उन्नति का भी जोर-शोर से पक्ष लेते हैं। भारतेन्दु तरह-तरह के उदाहरण देकर लोगों को समझाते है कि भाषाओं को सीखना, देश के लिए, समाज के लिए, व्यक्ति के लिए, विश्व के ज्ञान-विज्ञान, तकनीक को हासिल करने के लिए बहुत जरूरी हैं।
"अंग्रेजी पढ़ि के जदपि सब गुन होत प्रवीन ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन रहत हीन के हीन"॥
भारतेन्दु की राष्ट्रीय चेतना :-
भारतेन्दु की "विजयनी विजय वैजयन्ती" कविता अंग्रेजों की औपनेवेशिक राज की चालबाजियो को नंगा करती हैं। भारतेन्दु कहते है कि ---
"जो भारत जग में रहयों सब सो उत्तम देश।
ताही भारत में रहयों अब नहि सुख का लेस"।।
अर्थात अंग्रेज राज या ब्रिटिश राज में भारत की यह हालत हो गई है कि सुख का लेश मात्र भी नहीं बचा। देश की तात्कालीन दुर्दशा का भी भारतेन्दु ने यथार्थ चित्रण किया है। भारतेन्दु ने देशवासियों से कहा है कि वे लोग राज-पाट, धन के साथ-साथ ज्ञान और शक्ति को भी खो दिये हैं। बुद्धि, वीरता, समृद्धि, उत्साह की सूरत दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ती। आलस, कायरवन का ही साम्राज्य चारों ओर दिखाई पड़ता हैं। मूर्खता, दुश्मनी, आपसी फूट में देश डूबा हुआ हैं। देशवासी कोई कला नहीं सीखते, पशुओं की भाँति केवल उदरपुर्ति में लगे रहते हैं। सारा धन विदेश जा रहा है और किसी को कोई चिंता नहीं हैं। विदेशी माल इस्तेमाल किए बिना मानो भारतवासियों का कोई काम ही नहीं हो सकता।
भारतेन्दु की नजर में भारत की ऐसी दशा का सबसे बड़ा कारण आक्रमणकारी अंग्रेज हैं, और दूसरा कारण जनता की रुढ़िवादिता, धर्माधता और सामाजिक रुढ़िया हैं। तीसरा कारण आलस्य, अपव्यय, झूठी शान-शौकत और चौथा कारण है उनकी कायर प्रवृत्ति। देशवासियों को ये कारण बताकर अपनी कविताओं में वे उन्हें फटकार भी लगाते हैं, और सुधरने का आहवान भी करते हैं। देश की उन्नति के लिए सब कुछ भूल कर, ऊॅंच-नीच, जाति छोड़कर एक होने की प्रेरणा भी देते हैं। भारत की तात्कालिक दुर्दशा का भी भारतेन्दु ने खुलकर अपनी कविताओं में यथार्थ चित्रण किया हैं। इस प्रकार यदि देखा जाए तो ब्रिटिश राज पर विश्वास करके भारतेन्दु की राजनीतिक समझ, औपनेवेशिक सुधारवाद, साम्राज्यवाद और सामंतवाद की चालाकियों को समझने में सक्रिय हुई हैं। इसलिए भारतेन्दु की कविताऍं यदि एक ओर राजभक्ति का भ्रम पैदा करती है, तो दूसरे ही क्षण देश की दुर्दशा के कारणों का खुलासा करते हुए राष्ट्रीय एकता के लिए जनता को एकजुट होने का आहवान भी करते हैं।
मैथलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय चेतना:-
गुप्त जी की राष्ट्रीय आन्दोलन भारतेन्दु युग से मिली किन्तु भारतेन्दु युग की चेतना और गुप्त जी की राष्ट्रीय चेतना में अंतर है, परिस्थितियों में भी अंतर हैं। गुप्त जी के समय में अंग्रेजो का चरित्र पूरी तरह खुल कर सामने आ गया था। उनसे सामना करने के लिए राजनीतिक स्तर पर कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। गुप्त जी में अपने युग की कई ऐसी प्रवृत्तियों को प्रेरणा देने की शक्ति थीं, जिससे नवयुवको में जोश और आत्मसम्मान की भावना भर जाती हैं।
"आओ मिले सब देश-बान्धव हार बन देश के,
साधक बने सब प्रेम से सुख शांतिमय उद्देश्य के"
गुप्तजी की प्रतिमा की सबसे बड़ी विशेषता है-- कालानुसरण की क्षमता अर्थात उत्तरोतर बदलती हुई भावनाओं और काव्यप्रणालियों को ग्रहण करते चलने की शक्ति। राष्ट्रीय नवजागरण की व्यापक रूप से साहित्य की अन्तवस्तु बनाकर द्विवेदी युग में मैथलीशरण गुप्त ने देश की जनता के साथ साहित्य का व्यापक संबंध स्थापित किया हैं। गुप्तजी की काव्ययात्रा की खूबी यह रही है कि वे समय के साथ राष्ट्रीय आंदोलन की तात्कालिक जरूरतों के मुताबिक स्वयं को और अपनी सर्जना को भी ढ़ालते रहें। एक तरफ भाषा और चेतना का द्वंद तो दूसरी तरफ वस्तु के द्वंदो को भारतेन्दु ने झेला है, उस प्रकार मैथिलीशरण गुप्तजी ने नहीं।
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