IGNOU MHD - 02: आधुनिक हिंदी काव्य,
सुमित्रानन्दन पंत की काव्य यात्रा
IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment
(3) सुमित्रानन्दन पंत की काव्य यात्रा का विवेचन कीजिए ।
उत्तर :- पंत की काव्य-यात्रा के विविध चरण:-
(1) प्रथम चरण: छायावाद - स्वच्छंदतावाद:-
छायावाद का प्रमुख गुण व्यक्तिवाद पर टिकी आत्मानुभूति या आत्माभिव्यक्ति है, अपनी आशा-निराशा, प्रेम-विरह व्यथा, सौन्दर्यानुभूति के अनेको मनोरम चित्र इस युग के कवियों में मिलते हैं। वैयक्तिक स्वतंत्रता की भावना और भारतीय मुक्ति आंदोलन से छायावादी कवियों ने जो सबसे महत्वपूर्ण चीज प्राप्त की वह है मानसिक स्वाधीनता। इस युग के कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्वच्छंद कल्पना प्रकृति का सहारा लिया। पंत के समूचे काव्य में कल्पना की स्वच्छंद उड़ान, प्रकृति के प्रति लगाव और प्रकृति तथा मानव जीवन के कोमल और सरस पक्ष के प्रति आग्रह समान रूप से मिलेगा। इनके माध्यम से अनेक रुढ़ियों विधि- निषेधों का जर्जर परंपराओं से मुक्ति का इन्हें अत्यंत सुगम मार्ग मिला।
(i) पंत का प्रकृति चित्रण:-
प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम और कलपना की उॅंची उड़ान पंत के काव्य की प्रमुख विशेषता मानी जा सकती हैं। पंत जी का प्रकृति प्रेम उनके निजी प्राकृतिक परिवेश पर आधारित हैं। पंत ने लिखा है, कविता की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली हैं। पंत प्राकृतिक सौंदर्य से इतने अभिभूत थे कि नारी सौंदर्य के आर्कषण को भी उनके सम्मुख न्यून मान लिया था।-----
"छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले, तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूॅं लोचन "।
पंत के यहाँ प्रकृति निर्जीव जड़ वस्तु होकर एक साकार और सजीव सत्ता के रूप में उपस्थित हुई हैं। यहाँ संध्या का एक जिज्ञासापूर्ण चित्र दर्शनीय----
"कौन, तुम रुपसि कौन ?
व्योम से उतर रही चुपचाप
छिपी निज छाया में छवि आप,
सुनहला फैला केश-कलाप-
मधुर, मंथर मृदु मौन।"
इस पूरी कविता में संध्या को एक आकर्षण युवती के रूप में मौन, मंथर गति से पृथ्वी पर पर्दापण करते हुए दिखा कर कवि ने संध्या का मानवीकरण किया हैं। प्रकृति का यह मानवीकरण छायावादी काव्य की एक प्रमुख विशेषता हैं। पंत की प्रकृति में संध्या का एक उदाहरण----
"गंगा के चल जल में निर्मल,
कुम्हला किरणों का रक्तोत्पल,
है मूॅंद चुका अपने मृदु दल।
लहरों पर स्वर्ण रेख सुंदर पड़ गयी नील, ज्यों अधरों पर, अरुणाई प्रखर शिशिर से डर।"
यहाँ गंगा के चंचल जल में रक्तोत्पल (लाल कमल) के समान सूर्य के बिम्ब का डूबना और गंगा की लहरों पर संध्या की सुनहली आभा का धीरे-धीरे नीलिमा में परिवर्तित होना आदि कवि के सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण और उसकी गहन रंग चेतना का परिचायक हैं।
(ii) नारी सौंदर्य और प्रणय भाव:-
प्राकृतिक सौन्दर्य की भाँति ही कविवर पंत की दृष्टि नारी सौंदर्य की ओर भी आकृष्ट हुई हैं। पंत के प्रेम और उनकी नारी विषयक मान्यताओं के ज्वलंत दस्तावेज हैं। अपनी आँसू शीर्षक कविता में इन्होने लिखा है-----
"वियोगी होगा पहिला कवि, आह से उपजा होना गान, उमड़कर ऑंखो से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान"।
इस कविता में कवि ने प्रकृति के अनन्त विस्तार में अपनी प्रेमजनित व्यथा को ही व्याप्त चित्रित किया हैं। वायु, बादल, आकाश, इन्द्रधनु आदि प्रकृति के तमाम उपकरण इनकी विरह वेदना को उद्दीप्त करते हैं। इस वरदान स्वरूप व्यथा में कल्पना की ऊँची उड़ान के कारण लौकिक प्रेम की यथार्थ भूमि का परित्याग कर पंत की दिव्यता का आदर्श ही अधिक प्रस्तुत हुआ हैं। छायावादी कवियों में प्रसाद और महादेवी का प्रेम-दर्शन भी ऐसा ही रहा है। इस कविता में पंत ने महादेवी के स्वर में स्वर मिलाकर लिखा है---
"विरह है अथवा यह वरदान,
कल्पना में है कसकती वेदना,
अश्रु में जीता सिसकता गान है,
शून्य आहों में सुरीले छंद हैं,
मधुर लय का क्या कहीं अवसान है।"
पंत की छायावादी युग की इन कविताओं में प्रणय वेदना है, जिनमें शारीरिक सम्पर्क या मांसलता की अपेक्षा सूक्ष्मता और दिव्यता के दर्शन होते हैं। अपनी 'नारी रूप' शीर्षक कविता में पंत ने नारी सौंदर्य और उसके गुणों को गान करते हुए अंत में उसे देवि ! माँ ! सहचरि /प्राण ! की संज्ञा से संबोधित किया हैं। "स्वर्ण किरण" तक आते-आते इनका प्रेम पूर्णतः अशरीरी और अलौकिक रुप ग्रहण कर लेता है----
"देह नही है परिधि प्रणय की,
प्रणय दिव्य है मुक्ति हृदय की"
लेकिन अपनी यौवनावस्था के प्रथम चरण में रचित पंत की बहुत सी कविताएँ इनकी निजी प्रेमानुभूति पर आधारित हैं। जिनमें संयोग की काल्पनिक स्मृतियाॅं विरह-व्यथा के रूप में अत्यंत विहवल भाव से अभिव्यक्त हुई हैं। सब मिलाकर पंत की प्रणय भावना और नारी विषयक दृष्टि अन्य छायावादी कवियों की तरह ही सुक्ष्म और मानसिकता अधिक हैं, जिसमें स्थूल शारीरिक आकर्षण का सर्वथा अभाव हैं।
(iii) कल्पना की ऊँची उड़ान:--
पंत के काव्य में प्रकृति के प्रति गहन आकर्षण और प्रण्यानुभूति की तीव्रता के साथ ही छायावादी काव्य में भी कल्पना की उॅंची उड़ान अपना विशेष महत्व रखती हैं, चाहे प्रकृति का क्षेत्र हो या प्रणय का छायावादी कवियों ने अपनी स्वाधीनता या मुक्ति की भावना की पूर्ति स्वच्छंद कल्पना के माध्यम से ही की हैं। पंत की कल्पना का उदाहरण ----
"धीरे-धीरे संशय से उठ, बढ़ अपयश से शीघ्र अछोर,
नभ के उर में उमड़ मोह से, फैल लालसा से निशिभोर।
इन्द्रचाप सी व्योम भृकुटी पर, लटक मौन चिन्ता से घोर,
घोष भरे विप्लव भय से हम, छा जाते द्रुत चारो ओर।।"
बादल का संशय की तरह धीरे-धीरे उठना, अपयश की भाॅंति शीघ्र चारों तरफ फैल जाना, आकाश के हृदयों में मोह चिन्ता की तरह लटकना और विप्लव की घनघोर आवाज से उत्पन्न भय की तरह चारों ओर फैल जाना, उसे एक सजीव सत्ता के रूप में प्रस्तुत करता हैं।
पंत' की कविताएँ वेदना से सम्बन्ध कुछ मूर्त-अमूर्त अप्रस्तुतों की योजना तक सीमित कल्पना नहीं हैं, इसमें वस्तुगत यथार्थ के प्रति आग्रह कम और वेदना के भावावेग पर अधिक जोर हैं। छायावाद के अन्य कवियों की भाँति ही पंत ने भी कल्पना के साथ स्मृति को कुशलता से संयुक्त किया हैं। स्मृति का संबंध पूर्व अनुभव से होता है, जिसे कल्पना एक नया रूप प्रदान करती हैं।
(2) द्वितीय चरण प्रगतिवादी जीवन-बोध:-
पंत एक कवि के रूप में अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वाह की भावना से प्रेरित होकर प्रगतिवादी साहित्य आंदोलन से जुड़े हैं। अपनी युगानुकूलता और प्रगतिवादिता के संकेत को नये युग की अनिवार्यता को रेखांकित करते हुए कवि ने युगवाणी में लिखा है...
द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र, हे स्रस्त ध्वस्त, हे शुष्क शीर्ण,
हिम-ताप-पीत मधुवान-भीत, तुम वीतराग जड़ पुराचीन;
निष्वाण विगत-युग मृत विहंग, जग-नीड़ शब्द औ श्वासहीन,
च्युत अस्त-व्यस्त पंखों से तुम, झर झर अनंत में हो विलीन।
कवि इस संग्रह में छायावादी पतझर के बाद नयी वासंती प्रकृति का आह्वान करने लगता हैं। पतझर के साथ ही विहग-समूह भी उसके लिए नवयुग के स्वागतकर्ता बन जाते हैं। रात के अंधकार के बाद उषा की लालिमा में वह कोकिल का आह्वान करते हुए कहता है----
"गा कोकिल बरसा पावक कण, नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन, ध्वंस-भ्रंश जग के जड़ बंधन, पावक पग धर आवे नूतन,
हो पल्लवित नवल मानवपन।"
इस प्रकार की कविताओं में पंत अपनी छायावादी रचना दृष्टि से विदा होने की सूचना मात्र न देकर दत्तचित्र नये के स्वागत के लिए तमाम सारे उपकरणों को एकत्र करने को दत्तचित्र हुए हैं। यह एक वास्तविकता है कि पंत कोई भी किसी विषय पर रचनारत होते है तो अपने मन लोक के इर्द-गिर्द ऐसा ताना-बाना बुन देते है कि कोई अन्य भाव या विषय उसमें प्रवेश कर ही नहीं पाता। जैसे---
"मनुष्यता का तत्व सिखाता निश्चय ही गांधीवाद,
सामुहिक जीवन-विकास की सभ्य योजना है अविवाद।"
पंत के उपयुक्त कथन से दो तथ्य उभर कर सामने आते है-- पहला तो यह है कि इन्होंने ग्रामीण के जीवन से घुल-मिल कर ग्रामीणों के प्रति सहानुभूति व्यक्त किया है, तो दूसरा वह यह है कि वर्तमान दुर्दशाग्रस्त जीवन के साथ घुल मिलकर साहित्य की रचना करना।
(3) तृतीय चरण - अरविंद दर्शन पर आधारित आध्यात्मिक नव मानवतावाद:--
तीसरे चरण में पंत ने अरविन्द दर्शन के प्रकाश में व्यापक
समन्वय द्वारा नव मानवतावाद का प्रतिपादन किया हैं । महर्षि अरवेिन्द का आदर्श रहा है, भौतिकता और आध्यात्मिक का समन्वय जीवात्मा और जगत की एकता के साथ ही उसे ब्रह्म की कला मान कर अरविन्द ने तीनों में व्याप्त एक अखंड और शाश्वत चेतना का प्रतिपादन किया लेकिन अरंविद दर्शन के प्रभाव में आने के बाद पंत को भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय का एक ठोस आधार प्राप्त हो गया। "स्वर्ण किरण" और "स्वर्ण धुली" में अत्यंत तन्मयता के साथ आत्म सत्य की ओर और बाह्य से अंतर्मन की ओर झुक गए हैं। जैसे एक कविता---
सामाजिक जीवन से वही महत् अंतर्मन,
वृहत, विश्व इतिहास, चेतना गीता किन्तु चिरंतन।
अंतश्चेतना के आधार पर समन्वय के जिस विराट आयोजन में पंत का "स्वर्ण काव्य" सक्रिय हुआ हैं। वह केवल दिवा स्वप्न बनकर रह जाता हैं। इस समन्वय साधना में और आगे बढ़ कर कवि भौतिक जीवन से बहुत ऊँचे परमतत्व तक पहुँच जाता हैं। इन पंक्तियों में-----
"अन्त प्राण, मन, आत्मा केवल
ज्ञान-भेद सत्य के परम,
इन सबसे चिर व्याप्त ईश रे
मुक्त सच्चिदानंद चिरंतन"
पंत ने 'स्वर्ण धूलि' की एक 'ग्रामीण' शीर्षक कविता में लिखा है---
"भारतीय ही नहीं बल्कि मैं
हूॅं ग्रामीण हृदय के भीतर"
कवि पंत ने जीवन को सुखमय बनाने के लिए कहा है कि आत्मामंथन के द्वारा ही भारतीय जनता अपने परम्पराप्रियता, भय, संदेह, घृणा, आत्महीनता की अंधेरी खोह से निकलकर मुक्त नील आकाश के नीचे स्वच्छ वायु में विचरण कर सकेगी। पंत अपनी आत्मानुभूति कविता में सृर्जनकत्ता से कहते है कि तू अपने को सांसारिक मोह-माया और लालसाओं से अपने को मुक्त रखे। इसका मतलब हुआ कि सांसारिकता सामाजिकता से परे रहकर ही आत्मानुभूति सृजनशील बन सकती हैं। पंत की कविता का एक उदाहरण----
"प्रथम बार अब जगत ब्रह्म में, ब्रह्म जगत में हुआ प्रतिष्ठित ।
मुक्त भेद मन भू जीवन सित चित् पट में हुआ समन्वित।।"
सब मिलाकर 'लोकायतन' कविवर पंत के लोक कल्याण संबंधी सब नेक इरादे का भव्य एंव कलात्मक साक्षात्कार करता हैं। अपनी अन्य रचनाओं के माध्यम से पंत ने अतीतोन्मुखता की अपेक्षा भविष्योन्मुखता का ही अधिक परिचय दिया हैं।
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